मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक)
राशि और नक्षत्र दोनों जब एक स्थान पर समाप्त होते हैं तब यह स्थित
गण्ड नक्षत्र कहलाती है और इस समापन स्थिति से ही नवीन राशि और नक्षत्र के प्रारम्भ
होने के कारण ही यह नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं।
बच्चे के जन्म काल के समय सत्ताइस
नक्षत्रों में से यदि रेवती, अश्विनी, श्लेषा,
मघा, ज्येष्ठा अथवा मूल नक्षत्र में से कोई एक
नक्षत्र हो तो सामान्य भाषा में वह दिया जाता है कि बच्चा मूलों में जन्मा है। अधिकांशतः
लोगों में यह भ्रम भी उत्पन्न कर दिया जाता है कि मूल नक्षत्र में जन्मा हुआ बच्चे
पर बहुत भारी रहेगा अथवा माता, पिता, परिजनों
आदि के लिए दुर्भाग्य का कारण बनेगा अथवा अरिष्टकारी सिद्ध होगा।
राशि और नक्षत्र के एक स्थल पर
उदगम और समागम के आधार पर नक्षत्रों की इस प्रकार कुल 6 स्थितियां
बनती हैं अर्थात् तीन नक्षत्र गण्ड और तीन मूल संज्ञक। कर्क राशि तथा आश्लेषा नक्षत्र
साथ-साथ समाप्त होते हैं तब यहॉ से मघा राशि का समापन और सिंह राशि का उदय होता है।
इसी लिए इस संयोग को अश्लेषा गण संज्ञक और मघा मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं।
वृश्चिक राशि और ज्येष्ठा नक्षत्र
एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से ही मूल और धनु राशि का प्रारंभ होता है। इसलिए इस स्थिति
को ज्येष्ठा गण्ड और ‘मूल’ मूल संज्ञक नक्षत्र
कहते हैं। मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से मेष राशि व अश्विनि
नक्षत्र प्ररांभ होते हैं। इसलिए इस स्थिति को रेवती गण्ड और अश्विनि मूल नक्षत्र कहते
हैं।
उक्त तीन गण्ड नक्षत्र अश्लेषा,
ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध और मघा, मूल तथा अश्विनि तीन मूल नक्षत्रों का स्वामी केतु है। जन्म काल से नवें अथवा
सत्ताइसवें दिन जब इन नक्षत्रों की पुनः आवृति होती है तब मूल और गण्ड नक्षत्रों के
निमित्त शांति पाठों का विधान प्रायः चलन में है।
ज्योतिष के महाग्रंथों शतपथ ब्राह्मण
और तैत्तिरीय ब्राह्मण में मूल नक्षत्रों के विषय में तथा इनके वेदोक्त मंत्रों द्वारा
उपचार के विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि जातक महाग्रंथों को ध्यान से टटोलें
तो वहॉ यह भी स्पष्ट मिलता है उक्त छः मूल नक्षत्र सदैव अनिष्ट कारी नहीं होते। इनका
अनेक स्थितियों में स्वतः ही अरिष्ट का परिहार हो जाता है। यह बात भी अवश्य ध्यान में
रखें कि मूल नक्षत्र हर दशा में अरिष्ट कारक नहीं सिद्ध होते। इसलिए मूल नक्षत्र निर्णय
से पूर्व हर प्रकार से यह सुनिश्चत अवश्य कर लेने में बौद्धिकता है कि वास्तव में मूल
नक्षत्र अरिष्टकारी है अथवा नहीं। अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि दुर्भाग्यपूर्ण
ऐसी स्थितियॉ मात्र 30 प्रतिशत ही संभावित होती हैं। लगभग 70 प्रतिशत दोषों में इनका स्वतः ही
परिहार हो जाता है।
जन्म यदि रेवती नक्षत्र के चौथे
चरण में अथवा अश्विनि के पहले चरण में, श्लेषा के चौथे,
मघा के पहले, ज्येष्ठा के चौथे अथवा मूल नक्षत्र
के पहले चरण में हुआ है तो ही गण्ड मूल संज्ञक नक्षत्र उस व्यक्ति पर बनता है अन्य
उक्त नक्षत्रों के चरणों में होने से नहीं।
जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर
उदय हो रही राशि अर्थात् लग्न भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ की ओर संकेत देते हैं। यदि
वृष, सिंह, वृश्चिक अथवा कुंभ लग्न में
जन्म हुआ हो तो मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं लगता। देखा गया है कि इन लग्नों में
हुआ जन्म भाग्यशाली ही सिद्ध होता है।
दिन और रात्रि काल के समयों का
भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ पर असर पड़ता है। विशेषकर कन्या का जन्म यदि दिन में और
लड़के का रात्रि काल में हुआ है तब भी मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव स्वतः ही नगण्य हो
जाता है।
सप्ताह के दिनों का भी मूल के शुभाशुभ
का प्रभाव होता है। शनिवार तीक्षण अथवा दारुण संज्ञक और मंगलवार उग्र अथवा क्रूर संज्ञक
कहे गये हैं। इसलिए इन वारों में पड़ने वाले मूल या गण्ड नक्षत्रों का प्रभाव-दुष्प्रभाव
अन्य दिनों की तुलना में पड़ने वाले वारों से अधिक कष्टकारी होता है।
नक्षत्रों के तीन मुखों अद्योमुखी,
त्रियक मुखी और उर्घ्वमुखी गुणों के अधार पर भी मूल के शुभाशुभ की गणना
की जाती है। रेवती नक्षत्र उर्घ्वमुखी होने के कारण सौम्य गण्ड संज्ञक कहे जाते हैं।
परंतु अन्य मूल, अश्लेषा व मघा तथा ज्येष्ठा व अश्विनि क्रमशः
अद्योमुखी और त्रियक मुखी होने के कारण तुलनात्मक रुप से अधिक अनिष्टकारी सिद्ध होते
हैं।
काल, देश,
व्यक्ति तथा नक्षत्र की पीड़ा अनुसार योग्य कर्मकाण्डी पंडितों द्वारा
वैदिक पूजा का प्रावधान है। मान्यग्रंथों की मान्यता है कि अरिष्टकारी मूल और गण्ड
मूलों की विधिनुसार शांति करवा लेने से उनका दुष्प्रभाव निश्चित रुप से क्षीण होता
है। वेद मंत्रों द्वारा सर्वप्रथम योग्य विद्वान यह अवश्य सुनिश्चित कर लेते हैं कि
व्यक्ति विशेष किस प्रकार के मूल नक्षत्र से पीढ़ित है और तदनुसार किस वेद मंत्र प्रयोग
का प्रयोग पीढ़ित व्यक्ति पर किया जाए। इसके लिए 108 पवित्र स्थानों
का जल, मिटटी तथा 108 वृक्षों के पत्ते
एकत्रित करके सवा लाख मंत्र जप से शांति पाठ किया जाता है जो सामान्यतः 7 से 10 दिन में समाप्त होता है। दिनों की संख्या एवं
उसका समापन निश्चित दिनों में सम्पन्न करना आवश्यक नहीं हो तो मंत्र जप का समापन इस
प्रकार से सुनिश्चित किया जाता है कि पूजा का अंतिम दिन वही हो जिस दिन जो नक्षत्र हो उस नक्षत्र में ही व्यक्ति का जन्म हुआ हो। दान में
चावल, गुड़, घी, काले
तिल, गेंहू, कम्बल, जौ आदि देने का सामान्यतः चलन अनुसरण किया जाता है। यह भी मान्यता है कि मूल
शान्ति के लिए किया जा रहा जप यदि त्रयम्बकेश्वर, हरिद्वार,
गया, पुष्कर, उज्जैन,
बद्रीनाथ धाम आदि सिद्ध तीथरें स्थलों में किया जाए तो सुप्रभाव शीघ्र
देखने को मिलता है। समय, धन आदि की समस्या को देखते हुए यदि पूजन
किसी अन्य स्थान में सम्पन्न किया जाता है तो भी परिणाम अवश्य मिलता है।
आश्लेषा मूल में सर्प, मघा में पितृ, ज्येष्ठा में इन्द्र, मूल में प्रजापति तथा रेवती नक्षत्र
में पूषा देवों की पूजा-आराधना का भी अनेक स्थानों पर चलन है।
मूल नक्षत्र की जो भी अवधारणा है
सर्वप्रथम उससे डरने की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। हॉ, कोई सक्षम है तो अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उसके शांति के कर्म शास्त्रोक्त विधि-विधान
से अवश्य करवा सकता है।
कठिनाई वहॉ आती है जब समस्या का
उचित आंकलन नहीं हो पाता और समस्या से भी बड़ी समस्या तब उत्पन्न होती है जब उपयुक्त
प्रकार के अभावों में उसका निदान नहीं हो पाता।
मूल समस्या समाधान हेतु अपनी रत्नों
वाली चर्चित पुस्तक, ‘स्वयं चुनिए अपना भाग्यशाली रत्न’
में मैंने निदान स्वरुप मूलशांति के लिए रत्न गणना का भी विस्तार से
विवरण दिया है। यदि रत्न विषय में रुचि है और पीड़ित व्यक्ति स्वयं साध्य बौद्धिक गणनाओं
से किसी ठोस निष्कर्ष पर पहॅुचना चाहते हैं तो एक बार रत्न प्रयोग करके भी अवश्य देखें।
सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्म पत्री
से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। माना आपका
जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह दर्शाता है कि आपको मान-सम्मान मिलना
है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुण्डली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना
है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्म कुण्डली में दसवें भाव की राशि के अनुरुप रत्न धारण
कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। माना आपकी लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके
दसवें भाव का स्वामी शुक्र हुआ। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न
ज़िरकन धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ ही लाभ मिलेगा।
माना आपका जन्म मघा नक्षत्र के
चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे।
जन्म पत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म
सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी। जिसका स्वामी ग्रह बुध है।
इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रुप से लाभ देगा।
एक अन्य उदाहरण देखें, आपको विधि और भी सरल लगने लगेगी। माना आपका जन्म अश्लेषा नक्षत्र के प्रथम
चरण में हुआ है। इसका अर्थ है कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो
सुख के कारक भाव अर्थात् चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि
इस स्थिति में मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला होगा।
मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल
देने वाले है। तब रत्न का चयन करना सरल है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वह अरिष्ट
कारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत
होने लगेगा। कुछ उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करता हॅू।
माना आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र
के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आपका जन्म माता पर भारी हैं। आपके जन्म
लेने से वह कष्टों में रहती होगी। जन्म पत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया
जाता है। ध्यान रखें यहॉ पर चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना है।
अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि
की मित्र राशियॉ कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती हैं
तथा त्रिक्भावों अर्थात् 6, 8 अथवा 12वें
भाव में स्थित हों तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित
रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोषों से मुक्ति दिलवाने में लाभदायक सिद्ध होंगे।
साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार मित्र चक्र से कर सकते हैं। परन्तु यदि रत्न चयन
के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य
विचार करें। माना इस उदाहरण से जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहॉ कर्क
रशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं
करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं, सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियॉ क्रमशः हैं - सिंह, मेष तथा वृश्चिक और धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क राशि से छठे भाव में स्थित
है अर्थात् षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहॉ इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज
धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा।
मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक)
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