रूड़की
– २४७ ६६७ (उत्तराखंड)
चिकित्सा शास्त्र में शब्द आता है मनोरोग। भारतीय अनेकों पाच्य
साहित्य में सामान्यतः इसको भूत विज्ञान कह दिया जाता है अर्थात् वह बीमारी जो ऐसे
कारणों से हो रही है जो पराजगत् से सम्बन्धित हैं। देवी आत्मा, प्रेत बाधा, ओपरा, खेलना,
झूमना, ऊपरी बाधा आदि अनेकों ऐस शब्द हैं जो पराजगत्
की बातों से सम्बद्ध हैं। आधुनिक विज्ञान और ऐलोपेथी चिकित्सा इन बातों में ऊपरी मन
से विश्वास नहीं करते परन्तु आयुर्वेद शास्त्रों में भूत-प्रेत बाधा से पीड़ा और उनके
उपचारों की विवेचना व्यापक रूप से मिलती है।
वैसे तो भूत-प्रेत नामक किसी पराशक्ति आदि की बातें जैसे कि उनका
प्राकट्य, उनका अस्तित्व, उनका निवास,
उनका लोक, उनके द्वारा पहुँचाई गयी पीड़ा और अनेक
अनुभवों में उनके द्वारा पहुँचाया गया लाभ आदि का कभी भी कोई एक सुनिश्चित मत नहीं
रहा है। परन्तु ऐसे भी अनेक प्रकरण उदाहरण स्वरूप सामने आए हैं कि विश्वास न करने वाला
भी अनुभूत होने पर इन पराविज्ञान की बातों और उनके तथ्य पर विश्वास करने लगा है।
अष्टांग आयुर्वेद में भूत विद्या
और ग्रह बाधा नाम से स्पष्ट रूप से विवरण मिलता है। सुश्रुत संहिता के 'अमानुषोपसर्ग प्रतिबेध' अध्याय तथा चरक संहिता के 'उन्माद प्रकरण', 'अष्टांग संग्रह' में भूत विज्ञानीय भूत प्रतिबेध, अष्टांहृदय में भूत
विज्ञानीय एवं प्रतिबेध भूत विद्या के सम्बध में रोचक सामग्री उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त
भूतादि ग्रहों एवं बाल ग्रहों के विषय में भी इन ग्रंथों में विवरण मिलते हैं। सुश्रुत
संहिता में भूत विषय सामग्री एक-दो नहीं ग्यारह अध्यायों में देखने को मिलती है। रेवती
कल्प में बाल ग्रह चिकित्सा का मुख्य रूप से प्रतिपादन किया गया है। वाग्भट् ने भी
भूत विद्या का प्रथक सविस्तृत उल्लेख किया है।
महर्षि सुश्रुत ने भूत विद्या के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से लिखा
है कि जिस विद्या द्वारा देव, दैत्य, राक्षस,
गन्धर्व, यक्ष, पितर,
पिशाच, नाग ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति का शान्ति
कर्म, बलिदान आदि कर्म क्रियाओं द्वारा उपरोक्त देवादि देवों
का उपशमन होता है वह भूत विज्ञान विद्या ही कही जाती है। हारति संहिता में लिखा है
कि ग्रह बाधा, प्रेत, भूत, पिशाच, शाकिनी, डाकिनी आदि का निग्रह
ज्ञान ही वस्तुतः भूत विज्ञान अर्थात् भूत विद्या है। वाग्भट्टाचार्य ने इसको ही ग्रह
बाधा चिकित्सा कहा है। यहाँ ग्रह अथवा ग्रह बाधा शब्द से देवादि अथवा उनमें आवास का
अर्थात् शरीर में प्रवेश के अनुभव का बोध होता है। चरक संहिता के टीकाकार आचार्य चक्रपाणि
के अनुसार भूत अर्थात् राक्षस आदि के ज्ञान तथा उनमें प्रशमन के लिए प्रयुक्त विद्या
को भूत विद्या कहा जाता है।
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि देव, असुर, गन्धर्व, किन्नर,
भूत, प्रेत, पिशाच,
राक्षस, पितर, शाकिनी-डाकिनी
आदि का मानव शरीर में आवेश तथा शांति कर्म, बलिदान, धूपन, अंजनादि द्वारा उपशमन का ज्ञान जिस विद्या से होता
है उसको भूत विज्ञान कहा गया है।
मन और मानस शास्त्रों में पाश्चात्य देशों में 'Demonology' नाम से भूत विद्या प्रचलित थी। भूत विज्ञान
को 'Spiritual Science' तथा भूतावेश को
'Scizure' नाम से व्यापक रूप से माना गया
है। भूतादि विषय में संसार के लगभग सभी धर्म ग्रंथों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप
से विवरण मिलता है। भारतीय वांगमय में प्रेत योनि एवं उनका स्वरूप आदि, मानव पर उनका क्रोध, पीड़ित मानव के शरीर के लक्षण,
उपशमन हेतु विधियों मंत्रादि विधान तथा विशेष रूप से सनातनी कर्मकाण्ड
में शांति कर्म का व्यापक रूप से वर्णन मिलता है।
भूत विज्ञान को आधुनिक चिकित्सा पद्यति में मानस रोग 'Psychitry' कहा गया है। 'Psychitry'
शब्द 'Psychology' शब्द
से सर्वथा भिन्न है। देखने में वैसे दोनों शब्द एक ही लगते हैं। परन्तु अभिप्राय दोनों
के भिन्न है। 'Psychology' का अर्थ है
प्राणी विशेष से व्यवहार तथा उसके वातावरण का अध्ययन। जबकि 'Psychitry'
का तात्पर्य चिकित्सा शास्त्र की उस शाखा से है जिसमें मानसिक रोगों
का निदान अथवा चिकित्सा का ज्ञान मिलता है। मनोविकारों का भी कारण अव्यक्त होने से
भूताभिषंगवत् विचित्र व्यवहार को देखकर कतिपय मनोरोगों को भी अज्ञानतावश भूत ग्रह ही
समझ लिया जाता है। लेकिन सर्वांश में भूतादि अभिनव रोगों को मानस रोग मान लेना बौद्धिकता
नहीं है। यदि यह कहें कि आधुनिक मानस रोग विज्ञान 'भूत विज्ञान'
का एक अंग अथवा विभाग है तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।
देखा जाएं तो 'भूत विज्ञान' जैसे गूढ़ और न समझ में आने वाले पारलौकिक विषयों का सम्बन्ध वस्तुतः तंत्र
शास्त्र से है। भूत विज्ञान में वर्णित देवादिग्रह तथा मंत्र क्रिया आदि तांत्रिक पद्यति
के अन्तर्गत आते हैं। भूत विद्या से सम्बन्धित तंत्रिक ग्रंथ यक्षिणी कल्प,
यक्षिणी तंत्र, यक्षिणी पद्यति, यक्षिणी साधना आदि का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इनमें विविध यक्ष-यक्षिणियों
के विषय में विस्तार से वर्णित किया गया है। इन लुप्त ग्रंथों में यक्ष-यक्षिणियों
को अपने वशीभूत करके उनसे विविध सांसरिक भोग, सम्पत्ति आदि प्राप्त
करने का उल्लेख भी मिलता है।
इसके अतिरिक्त भूत बाधा व उनके उपचार के सम्बन्ध में भूत-तंत्र,
भूत लक्षण, भूत लिपि, मातृकापूजन, भूत विवेक, भूत-भूतिनी साधना,
भूत-भैरव तंत्र आदि में भी उल्लेख मिलता है। ग्रंथों में मंत्र,
मंत्र बीज आदि विषयक सामग्री भूत, यक्षादि को सिद्ध
करने के विधि-विधान वर्णित हैं। भूत डामर नामक ग्रंथ में सुंदरी साधना, नागिनी साधना, पिशाची साधना, पिशाचीरहस्य, यक्षिणी, नागिनी, अपस्राओं के रहस्य तथा उनकी पूजा अर्चना करके उनको अपने वश में करने जैसी अनेक
बातों का सुन्दर और तार्किक विवरण मिलता है। परन्तु यह सब ज्ञान लुप्त और सुप्त है
क्योंकि कालान्तर में किसी ने भी इसको निःस्वार्थ भाव से आगे बढ़ाने का यत्न ही नहीं
किया और जिन्होंने किया भी वह स्वयं ही लोक-समाज से प्रायः लुप्त और गुप्त रहे। यह
अधिकांशतः आज के परिपेक्ष्य में अज्ञानी एवं व्यवसायिक वर्ग के हाथ ही लगता रहा और
इसका स्वार्थवश दोहन होता रहा। इसलिए इस ज्ञान का तार्किक एवं व्यवहारिक पक्ष पूरी
तरह से न तो सार्वजनिक हो पाया और न ही सर्वजनहिताय सिद्ध हो पाया और इसी लिए इसको
सामान्यजन ने अंधविश्वास की श्रेणी में रख दिया।
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