मनासश्री गोपाल राजू
रूड़की – उत्तराखंड
रेकी बौद्धिक काल से चलन में आ
रही एक दिव्य चिकित्सा विद्या है जिसका या तो पलायन हो रहा है या दोहन।
रोग के निदान के लिए चिपरिचित ऐलॉपैथी, होम्योपैथी, प्राकृतिक, यूनानी,
चुम्बक, हिप्नोटिज्म, आयुर्वेदिक
आदि चिकित्साओं की तरह रेकी भी एक रोग निदान के लिए एक चिकित्सा पद्धति है। लगभग दो
सौ शताब्दियों से इसका चलन रोगों से मुक्ति पाने के लिए किया जाता रहा है। डॉ. मिकाओ यूसुई नामक साधक ने महात्मा बुद्ध के जीवन, उनके उद्देश्य और
उनकी साधना से प्रेरित होकर जापान के कीरोयामा पर्वत पर जाकर घोर तपस्या के बाद इस
चिकित्सा के लिए ज्ञान, शक्ति और साधना प्रकृति और प्राकृतिक
नियमों से प्राप्त की थी। रेकी मास्टर मानते हैं कि बिना आध्यात्मिक शक्ति के रेकी
चिकित्सा पद्धति पूरी हो ही नहीं सकती। डॉ. यूसुई के समर्थकों का विश्वास तो यहाँ तक
है कि वह महात्मा बुद्ध की शिक्षा और ज्ञान को ही पुनर्जीवित करने के लिए धरती पर आये
थे।
रेकी एक जापानी भाषा का शब्द है
। जापान में इसका उपयोग आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा रोगों के निदान में किया जाता है।
वस्तुतः रेकी प्राकृतिक चिकित्सा ही है। यूसुई शिकीरयोही नाम से चर्चित इस पद्यति का
जापान में व्यापक प्रयोग देखा जाता है। इस शब्द का अर्थ भी प्राकृतिक चिकित्सा ही माना
गया है। रेकी शब्द का तात्पर्य है, आध्यात्मिक शक्ति से
पैदा होने वाली जीवन शक्ति अर्थात् ऊर्जा। 'रे' शब्द का अर्थ है सार्वभौमिक। परन्तु यदि इसके गूढ़ भार्मिक अर्थ में जाते हैं
तो इसका अर्थ मर्मज्ञों द्वारा निकलता है पारलौकिक ज्ञान अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति
का जागृत होना। यह वस्तुतः वह ज्ञान है जो प्राकृतिक रूप से प्रभू तथा 'स्व' से प्राप्त होता है। यही पूर्णता से भरी हुई वह
शक्ति है जो मानव जाति के दुःख, चिंताओं आदि को अच्छे से जान
सकती है और तद्नुसार उसका सफल निदान करती है। 'की' शब्द का अर्थ ठीक चीनी भाषा के 'ची' शब्द की तरह है। संस्कृत में की शब्द का अर्थ प्राण है। यह और कुछ नहीं जीवनी
शक्ति का ही नाम है। यह जीवन दाययिनी शक्ति रोगी शरीर को स्वस्थ बनाने में पूर्णरूप
से सक्षम मानी गयी है।
''अभिलाषा ही सर्व दुःखों का मूल है'' परन्तु
जीवन है तो अभिलाषा, इच्छा भौतिक सुखों की निरन्तर भोग कामना
आदि से दूर रहना लगभग असम्भव है। यह सम्भव भी हो सकता है और उसका एक सरल सा उपाय है
प्रकृति और प्राकृतिक नियमों से जुड़ना। इसके बिना रेकी पद्यति में प्रवेश करना सम्भव
ही नहीं है। रेकी में जाना है तो कुछ अत्यन्त सामान्य सी बातों का अभ्यास अनुसरण करें।
अभिलाषा से स्वतः ही मुक्ति मिलने लगेगी।
प्रातः उगते और सायं काल अस्त
होते हुए सूर्य को निहारें। भावना यह जगाएं कि समस्त समाज, देश और विश्व के लिए सूर्य एक नया सवेरा लेकर आ रहा है।
प्रातः काल में चहकते पक्षी और उनकी प्रसन्नता का अनुभव करें।
वनस्पतियों के रंग, उनकी सुगन्ध,
उनके खिलने आदि को देखकर आंनद लें। ऐसे ही जीवन की नित्य-प्रति घटित
होने वाली असंख्य प्राकृतिक बातों को भाव-विभोर होकर निहारें और उनसे प्रसन्नता तथा
आनन्द बटोरें। इन सबसे बस यह सीखें कि वस्तुतः बस यही जीवन है।
यह वह सिद्धांत एवं नियम हैं जिनको
अंगीकर किए बिना रेकी ज्ञान में सिद्धहस्त नहीं हुआ जा सकता।
क्रोध, द्वेष, ईर्षा और अहं का सर्वथा त्याग।
अपनी चिन्ताओं से मुक्ति का प्रयास।
अपने प्रत्येक कर्म में तन्मयता, निष्ठा और ईमानदारी।
जीव-जन्तु, प्राणी तथा वनस्पती आदि सबके प्रति स्नेह और प्यार भरा व्यवहार।
प्रकृति और प्राकृतिक नियमों से
प्रसन्नता बटोरना और उनको औरों में बाटंना।
महात्मा बुद्ध के समय काल में रेकी का व्यापक प्रचार किया गया।
दुर्भाग्य यहाँ रहा कि इसके प्रचारक हमारे देश में कभी भी सफल नहीं रहे। एक ऐसा समय
भी था जब रेकी मात्र जापान तक ही सीमित था। इसका देश से बाहर ले जाने पर प्रतिबन्ध
था, इसीलिए यह कुछ बौद्धिक साधकों और कुछ व्यक्तिगत रूप से अभ्यास
किए जा रहे दो-चार लोगों तक ही सिमटकर रह गया। डॉ. यूसुई के बाद श्रीमति तकाता ने निःस्वार्थ
इस दिव्य ज्ञान का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार किया। 1970 के बाद श्रीमति तकाता ने
जर्ज अराकी, बारबरा, बेथ ग्रे, पॉल मिशेल, ऐथेल लोम्बार्डी, वांजा
त्वान आदि बाइस रेकी मास्टर तैयार किये जिनका रेकी क्षेत्र में एक विशेष योगदान रहा।
अब न तो निःस्वार्थ भाव से रेकी को लेकर कार्य करने की भावना
है, न ही संयम से मन निर्मल बनाने का प्रयास है, नही प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा के प्रति प्रेम और संरक्षण के प्रयास हैं
और सबसे ऊपर न ही अहं, द्वैष, ईर्षा,
क्रोध आदि को नियंत्रित करने की आत्मिक सहनशीलता । इसीलिए यह दिव्य ज्ञान
न व्यापक रूप से विकसित ही पाया और न ही चर्चित।
जनसंख्या का विस्फोट और तद्नुसार बढ़ रही प्रतिदिन पनप रहे नये-नये
रोग एक विकट समस्या बन रहे हैं। आज प्रत्येक
देश और समाज के लिए हम सब नित्य अपने जीवन में देख, परख और भोग
रहे हैं यह तथ्य। रोगी की संख्याओं के साथ-साथ दवाओं और चिकित्सकों की संख्या में भी
उत्तरोतर वृद्धि हो रही है। चिकित्सा के लिए कोई भी विधि हो उसके लिए अर्थ जुटाना सामान्य
जनता के लिए एक विकट समस्या बनती जा रही है। ऐसे में रेकी स्पर्श चिकित्सा अपने में
अनूठी एक उपचार पद्यति सिद्ध हो सकती है। इसको बीसवीं सदी की एक महान उपलब्धि कहा जा
सकता हैं। बिना दवा, शल्य चिकित्सा, इंजेक्शन
आदि के इससे साधारण ही नहीं असाध्य रोगों का भी इलाज सम्भव है। नित्य प्रति बढ़ते रोगों
के कारण उपज रही चिंता, मानसिक तनाव से बिना दवा और मंहगे चिकित्सकों
से रेकी स्पर्श द्वारा रोग मुक्त हुआ जा सकता है।
देखा जाए तो सरल, सुगम, बिना जोखिम, बिना किसी शारीरिक
कष्ट और बिना किसी विपरीत दुष्प्रभाव के रेकी चिकित्सा द्वारा रोग का सफल इलाज किया
जा सकता है।
रोगी के विपरीत रेकी स्पर्श चिकित्सा देने वाले को अधिक हानि
हो सकती है। इसका सबसे बड़ा कारण है अज्ञानता और स्वयं का स्वार्थ। यह स्वार्थ लोभ वश
अथवा अपनी झूठी ख्याति बढ़ाने के लिए हो सकता है। रेकी चिकित्सा ब्रह्माडीय ऊर्जा से
स्वयं को और दूसरों को रोग मुक्त करता है। आप स्वयं मनन करें कि दिव्यता का ऊर्जा भण्डार
तो संचित किया नहीं। किया भी है तो अत्यन्त अल्पतम मात्रा में और उसका प्रयोग किया
जा रहा है व्यापक स्तर पर। यह ठीक वैसा ही है कि संचय क्षमता तो एक प्रतिशत है और उपयोग
क्षमता से कहीं अधिक ऊर्जा का किया जा रहा है। ऐसे में दुष्परिणाम तो होंगे ही होंगे।
रोगी को रोग का ऐसे में निदान मिले अथवा न मिले रेकी देने वाले को अवश्य ही दुष्परिणाम
भोगना पड़ सकता है। आज रेकी चिकित्सा अध्यात्म से सर्वथा दूर है और इसका तो मूल आधार
ही आध्यात्मिक है। पवित्र आत्मा, निर्मल मन और निःस्वार्थ भाव
के बिना यदि इस चिकित्सा पद्यति का उपयोग होगा तब तो हानि ही हानि सम्भावित है।
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