कैसे साधन करें खेचरी मुद्रा
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घेरण्ड संहिता में 25 मुद्राओं का बहुत ही सुन्दर वर्णन सविस्तार से मिलता
है। इन मुद्राओं में महामुद्रा, विपरीत मुद्रा, योनि मुद्रा, शाम्मिवी मुद्रा, अगोचरी मुद्रा, भूचरी मुद्रा, और
खेचरी नामक इन सात मुद्राओं का विशेष स्थान माना गया है।
इन मुद्राओं से अंहकार, अनिद्रा,
भय, द्वेष, मोह आदि के पंचक्लेषदायक
विकारों का शमन होता है। अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्ति मिलती है। ऋण-प्राण
और धन-प्राण का मुद्राओं द्वारा एकीकरण होता है। जिससे मस्तिष्क को बल मिलता है और
बुद्धि का विकास होता है। मुद्राओं से कार्य करने की क्षमता बढ़ती है और विशेष रूप से
प्राणभय कोष के अनावरण में सहायता मिलती है।
मुद्राओं में खेचरी मुद्रा का विशेष स्थान माना गया है। इसके
द्वारा ब्रह्माण्ड में शेषशायी सहस्रदल स्थित परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता
है। इसलिए यह मुद्रा अन्य मुद्राओं से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
कैसे साधन करें खेचरी मुद्रा
प्रारम्भिक अभ्यास में जिव्हा के अग्रभाग को मोड़कर तालू से लगाने
का प्रयास करें। धीरे-धीरे जिव्हा को तालू के गड्डे में लटक रहे मांस के घण्टे को छूने
का यत्न करें। जिव्हा के अग्र भाग को प्रारम्भिक अवस्था में इस प्रकार पीछे की ओर मोड़ना
अत्यन्त कठिन लगेगा। सरलता के लिए जीभ के अग्रभाग पर काली मिर्च पाउडर का हल्का सा
लेप भी कर सकते हैं। इससे उत्तेजना उत्पन्न होगी और जिव्हा के अग्र भाग को तालू के
पीछे तक खिसने से उत्तेजित तन्तु शान्त होंगे।
जब जिव्हा को इस प्रकार पीछे मोड़कर तालू के अन्त तक पहुँचाने
का अभ्यास सरल और सुगम लगने लगे तब सात्विक भाव से मन को निर्मल कर किसी भी सुखद आसन
में कहीं शान्त जगह बैठ जाएं। जिव्हा के अग्रभाग को कंठ में स्थित कौवे अर्थात् मांस
के लटक रहे घंटे के मूल में खिसने का यत्न करें। सारा ध्यान इस भाग पर ही केन्द्रित
कर लें। एक ऐसी अवस्था बहुत ही अल्प समय में आने लगेगी कि जिव्हा तालू से स्पर्श हो
रहे तन्तु एक विचित्र सा मीठा पदार्थ अनुभव करने लगेंगे। विचित्र बात यह होगी कि यह
दिव्य मिठास वाला पदार्थ तालू के इस भाग पर ही आभास होगा। जितना अधिक जिव्हा को वहाँ
खिसा जाएगा उतनी ही अधिक मिठास और उसका दिव्य स्वाद अनुभव होता जाएगा। यह दिव्य पदार्थ
वस्तुतः अमृत तुल्य ही है। इसका पान करके ही सिद्ध योगी, देवता,
ऋषि-मुनी दिव्यता और अमृत्व को प्राप्त हुए हैं। यदि इस पदार्थ को तालू
से जिव्हा द्वारा मुँह के बाहर निकाल कर एकत्र करने का प्रयास किया जाए तो यह कभी भी
सम्भव नहीं होगा। एकदम विचित्र बात है कि यह अमृत तुल्य पदार्थ जब जिव्हा के तंतु स्पर्श
करके अनुभव कर रहे हैं, उसके स्वाद का रसपान कर रहे हैं तब यह
उस स्थान विशेष से लाख प्रयास करने के बाद भी बाहर क्यों नहीं आ पाता।
अमृत पान से भरी हुई यह विचित्र खेचरी मुद्रा यदि सिद्ध हो जाए
तो इससे प्राण शक्ति का संचार होने लगता है। सहस्रदल कमल में अवस्थित अमृत निर्झर झरने
लगता है। इस दिव्य पदार्थ के आस्वादन से दिव्य आनन्द की प्रवृत्ति होने लगती है। प्राण
की उर्ध्वगति हो जाने से मृत्यु काल में जीव ब्रह्मरन्ध्र से होकर ही प्रमाण करती है,
उसे मुक्ति या स्वर्ग की प्राप्ति होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस
मुद्रा को अल्प समय में, लघु अभ्यास से सरलता से सिद्ध किया जा
सकता है और दूसरे इसको करने में किसी भी प्रकार के अनिष्ट की लेशमात्र भी सम्भावना
नहीं है।
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