रूड़की – २४७ ६६७ (उत्तराखंड)
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धरती पर प्राप्त समस्त वनस्पतियों में दूर्वा एक ऐसी है जिसको अमृत्त्व
का वरदान प्राप्त है। पुराणों में वर्णन आता है कि श्रीर-सागर मथे जाने पर प्राप्त
अमृत से कुछ बूंदे छलक कर जब दूर्वा पर रखे अमृत कलश से गिरी तब उसके स्पर्श से दूर्वा
अजर-अमर हो गयी। तब से वह देवताओं के लिए पवित्र और पूजनीय बन गयीं। देवताओं ने भाद्रपद
शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन गंध, पुष्प , धूप,
दीप नैवेद्य, नारियल, आम्र,
दधि, अक्षत् आदि से उसका पूजन किया। देवताओं के
साथ-साथ उनकी पत्नियों तथा अप्सराओं ने भी उसका पूजन किया। तदन्तर में भूलोक पर वेदवती,
सीता, दमयन्ती आदि अनेक नारियों ने सौभाग्य दायिनी
दूर्वा का पूजन करके अपने अभीष्ट की प्राप्ति की।
जो नारी सात्विक और श्रद्धा भाव से दूर्वा का पूजन करके तिल,
गोदुग्ध, सप्त अनाज आदि का दान करती हैं,
उनको सौभाग्य की प्राप्ति होती है। संतान की प्राप्ति के लिए अथवा संतान
सुख के लिए दूर्वा अष्टमी के दिन किए जाने वाला व्रत अवश्य ही इष्ट सिद्धि प्रदायक
होता है।
व्रत में जपने के लिए धर्मशास्त्रों में जिस मंत्र
का वर्णन है वह है-
त्वं दूर्वेऽमृतजन्मासि
वन्दिता च सुरा सुरैः।
सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव।।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि
महीतले।
तथा ममापि संतान देहि
त्वमजरामरे।।
पुरूषों के लिए दूर्वा का सरलतम उपाय
अपनी चर्चित एक पुस्तक ''सौभाग्य जगानेके उपाय'' में इसका मैंने विस्तृत वर्णन भी किया है। सर्वप्रथम
अपने घर, प्रतिष्ठान , भवन, कर्मस्थल आदि के मुख्य द्वार के ऊपर गणेश जी की एक ऐसी प्रतिमा, मूर्ति, यंत्र, विग्रह आदि स्थापित
कर लें जिसमें गणेश जी की सूँड उनके दायीं और मुड़ी हो। देव का मुख भवन के अन्दर की
ओर होना चाहिए। प्रातः जब भी नित्य कर्म में अपनी दैनिक पूजा करते हैं तो उससे पहले
एक दूर्वा तोड़कर उसको स्वच्छ करके देव को अर्पित कर दिया करें। बस, मात्र इतना ही। यदि समय हो और श्रद्धा, आस्था भाव बढ़ने
लगे तो दूर्वा चढ़ाते समय देव का कोई मंत्र, बीज, स्तोत्र, स्तुति, आरती आदि जो कुछ
भी मन को भाये वह कर लिया करें।
यदि यह कर्म नित्य सम्भव न हो तो प्रत्येक सोमवार के दिन यह अवश्य
कर लिया करें। नयी दूर्वा अर्पित करने के बाद पुरानी दूर्वा कहीं जल में विसर्जित कर
दिया करें अथवा किसी पवित्र स्थान में छोड़ दिया करें।
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