ध्यान कैसे लगे


मानसश्री गोपाल राजू

                               ध्यान कैसे लगे

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    बहुत ही सरल और सुगम है ध्यान लगाना। सहज और हठ दोनों ही क्रियाओं से यह साधा जा सकता है। अगर क्लिष्ट साधनाओं में जाएं तब अनेकों स्कूल घर से बाहर मिल जाएंगे। बहुत से गुरु, ज्ञानी, स्वामी, सन्यासी हैं जो एक शिक्षा विषय के पाठ्यक्रम की तरह इसका ज्ञान बाटते हैं।  बहुत अच्छा है सब। परन्तु तब कष्टप्रद हो जाता है जब किसी को कहते सुना जाता है, ''अरे यार सब पैसा और समय नष्ट हो गया और कुछ भी नहीं मिला, सब ठग विद्या है।''
    देखा जाए तो ध्यान के लिए वाह्य क्रम-उपक्रमों से इधर-उधर भागकर अथवा भटककर तो कुछ मिलना कठिन ही है। इसके लिए, देखा जाए तो कुछ करना ही नहीं है। कहीं भटकना नहीं है। कहीं भागना भी नहीं है। अर्थ, धर्म, कर्म आदि में तो बिल्कुल ही जाना नहीं है। ध्यान लग गया तब धर्म-कर्म तो स्वतः ही परिभाषित होकर सरल-सुगम हो जाएंगे। धर्म-कर्म , पूजा-पाठ, साधना-अनुष्ठान, शिक्षा-दीक्षा आदि सब के लिए तो सब जानते ही हैं कि कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं। कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। कितना भटकना पड़ता हैं। विशेषकर आज के परिपेक्ष्य में तो क्या अपनाएं और क्या छोड़ें। नाम, धर्म, देवी-देवता एक फैशन की तरह देखे जाते हैं। टी.वी., गाने-बजाने, प्रचार-प्रसार आदि जिस किसी भी माध्यम से जिसका बोल बाला हो जाए, जिसका कद, बैनर अथवा आकर्षण बढ़-चढ़कर दिखाई देने लगे, उसके पीछे ही अंध दौड़ लग जाती है। परन्तु इससे वास्तव में क्या ध्यान लग रहा है? अपने अन्तःमन में स्वयं एक बार सच्चाई के साथ झांकर देखें और उससे ही उत्तर लेने का यत्न करें।
    ध्यान के लिए तो कुछ करना ही नहीं है। बस अपनी श्वास और प्रश्वास को शान्ति से देखने का यत्न करें। सांस के आने और जाने की गति पर बस सहजता से ध्यान केन्द्रित करें। सांस आता है और सांस जाता है अथवा सांस आ रहा है और सांस जा रहा है। इस क्रम में बलात् कोई भी चेष्ठा नहीं करनी है। जब कभी 
समय-असमय, दिन-रात, उठते-बैठते याद आ जाए, बस सांस को आते और जाते देखने, अनुभव करने का प्रयास करें। धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास का मर्म स्वतः ही सहज होने लगेगा। एक आराम दायक सुखद स्थिति में इस मर्म का बोध होने लगेगा। एक बार इस प्रभावपूर्ण स्थिति में अगर प्रवेश हो गया तब अकस्मात् अनुभूत होने लगेगा कि इतनी सुखद स्थिति में कभी हम गये ही नहीं थे। इसको ही बस ध्यान लगने की सीढ़ी मिली समझिए। पैर रखना है और  चढ़ते जाना है ऊपर से ऊपर।
    इस सहज क्रिया को सैकड़ों ध्यान साधना ममज्ञों ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर अलग-अलग रूप में अभिव्यक्त किया है। विपश्यना क्रिया उनमें से एक है। समझें तो ध्यान लगाने की अत्यन्त सरल नर्सरी के पाठ्यक्रम जैसी और मर्म समझ न आए तब तो क्लिष्ट और कभी न समझ आने वाली एक पहेली।
आद्यशक्ति गायत्री के गुणगान एवं तत्वदर्शन से भारतीय आर्ष ग्रंथ भरे हुए हैं। भावनात्मक, भक्तिपरक, दार्शनिक एवं व्यवहारिक-क्रियापरक सभी तरह के शास्त्रों में इस मूलधारा का उल्लेख, विवेचन, स्तवन अपने-अपने तरीके से लिखा गया है। गायत्री का अर्थ है - मनन, विद्या, विज्ञान एवं विचार। यह प्राणों का परित्राण करने की विद्या है।
अनुष्ठान के उदाहरण हैं -
    अगर गायत्री मंत्र के अनुष्ठान में जा रहे हैं तब उसके अनेक प्रकार मिलते हैं । लघु अर्थात् अनवरत 9 दिन में पूरा होने वाला 24,000 गायत्री मंत्र जप। मध्यम अर्थात् 40 दिन में सवा लाख मंत्र पूरा करने का अनुष्ठान तथा दीर्घ अर्थात् एक वर्ष में 24 लाख मंत्र जप।
    सीधा सा गणित देखें तो लघु के लिए नित्य 27, मध्यम के लिए नित्य 33, तथा दीर्घ के लिए नित्य 46 मालाएं जपकर अनुष्ठान पूरा होता है। यदि एक बैठक में सम्भव न हो तो दो अथवा तीन भागों में भी पूर्ण किया जा सकता है। परन्तु जिस संख्या में माला छोड़े, वह विषम होनी चाहिए, अन्तिम माला संख्या में भले ही सम हो।
    गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। भूः स्वः की तीन व्याहृतिया ब्रह्मा, विष्णु और महेश बनीं। इन्हीं से सरस्वती, लक्ष्मी तथा काली का प्रादुर्भाव हुआ । 'देवी भागवत् पुराण' में गायत्री के 24 अक्षर, 24अवतार, 24 देवता, 24 ऋषि माने गए हैं। दत्तात्रेय के 24 गुरु भी यही हैं। इसी प्रकार गायत्री मंत्र के 24 अक्षर हैं, 24 छंद, 24 तत्व, 24 देव शक्तियाँ, 24 देवियाँ, 24 बीज मंत्र, 24 विभूतियाँ, 24 प्रतिफल तथा 24 रंगों का वर्णन मिलता है। 'शंखसंहिता' में लिखा है कि 24 अक्षर वाले इस महामंत्र में सर्वाधिक पापों का नष्ट करने की क्षमता है। इहलोक और द्युलोक में गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है।
    गायत्री को तारक मंत्र भी कहते हैं। गायत्री मंत्र है -
       ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
       भर्गोदेवस्य धीमहि
       धियो योनः प्रचोदयात्।
ऊँ   -  सर्व रक्षक
भूः  -   सर्वप्राण और जीवनदाता
भुवः -   सर्व दुःखनाशक
स्वः  -  आनन्द धाम परमात्मा
तत्  -  उस
सवितुः  -  प्रेरक उत्पादक पिता एवं अतुल दानी एवं प्रकाश के देव
वरेण्यम्  -  वरण करने योग्य
भर्गः   -  पापनाशक दिव्य तेज को
देवस्य  -  देवता स्वरूप को
धीमहिः  -  हम धारण करते हैं
धियो   -  हमारी बुद्धि
योनः   -  जो
प्रचोदयात्  -  सदैव उत्तम कर्मों की ओर प्रेरणा देता है
    अर्थ - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप , श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नांशक, देवस्वरूप, परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे।

 
    गायत्री मंत्र पर्यावरण प्रदूषण, दीर्घ आयु, मुकदमे, अर्थ समस्याओं तथा मोक्ष अनेक विषयों में लाभकारी है। गायत्री अनुष्ठान के अनेक नियम हैं। इनमें से पुरश्चरण का विशेष विधान है।

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