सृष्टि से पहले जब कुछ भी नहीं था तब शून्य में
वहां एक ध्वनि मात्र होती थी। वह ध्वनि अथवा नाद था ‘ओऽम’। किसी शब्द, नाम आदि का निरंतर
गुंजन अर्थात मंत्र। उस मंत्र में शब्द था, एक स्वर था। वह शब्द
एक स्वर पर आधारित था। किसी शब्द आदि का उच्चारण एक निश्चित लय में करने पर विशिष्ट
ध्वनि कंपन ‘ईथर’ के द्वारा वातावरण में
उत्पन्न होते हैं। यह कंपन धीरे धीरे शरीर की विभिन्न कोशिकाओं पर प्रभाव डालते हैं।
विशिष्ट रुप से उच्चारण किए जाने वाले स्वर की योजनाबद्ध श्रंखला ही मंत्र होकर मुह
से उच्चारित होने वाली ध्वनि कोई न कोई प्रभाव अवश्य उत्पन्न करती है। इसी आधार को
मानकर ध्वनि का वर्गीकरण दो रुपों में किया गया है, जिन्हें हिन्दी
वर्णमाला में स्वर और व्यंजन नाम से जाना जाता है।
मंत्र ध्वनि और नाद पर आधारित है।
नाद शब्दों और स्वरों से उत्पन्न होता है। यदि कोई गायक मंत्र ज्ञाता भी है तो वह ऐसा
स्वर उत्पन्न कर सकता है, जो प्रभावशाली हो। इसको इस प्रकार से
देखा जा सकता है :
यदि स्वर की आवृत्ति किसी कांच,
बर्फ अथवा पत्थर आदि की स्वभाविक आवृत्ति से मिला दी जाए तो अनुनाद के
कारण वस्तु का कंपन आयाम बहुत अधिक हो जाएगा और वह बस्तु खडिण्त हो जाएगी। यही कारण
है कि फौजियों-सैनिकों की एक लय ताल में उठने वाली कदमों की चाप उस समय बदलवा दी जाती
है जब समूह रुप में वह किसी पुल पर से जा रहे होते हैं क्योंकि पुल पर एक ताल और लय
में कदमों की आवृत्ति पुल की स्वभाविक आवृत्ति के बराबर होने से उसमें अनुनाद के कारण
बहुत अधिक आयाम के कंपन उत्पन्न होने लगते हैं, परिणाम स्वरुप
पुल क्षतिग्रस्त हो सकता है। यह शब्द और नाद का ही तो प्रभाव है। अब कल्पना करिए मंत्र
जाप की शक्ति का, वह तो किसी शक्तिशाली बम से भी अधिक प्रभावशाली
हो सकता है।
किसी शब्द की अनुप्रस्थ तरंगों
के साथ जब लय बध्यता हो जाती है तब वह प्रभावशाली होने लगता है। यही मंत्र का सिद्धान्त
है और यही मंत्र का रहस्य है। इसलिए कोई भी मंत्र जाप निरंतर एक लय, नाद आवृत्ति विशेष में किए जाने पर ही कार्य करता है। मंत्र जाप में विशेष
रुप से इसीलिए शुद्ध उच्चारण, लय तथा आवृत्ति का अनुसरण करना
अनिवार्य है, तब ही मंत्र प्रभावी सिद्ध हो सकेगा।
नाम, मंत्र,
श्लोक, स्तोत्र, चालीसा,
अष्टक, दशक शब्दों की पुनर्रावृत्ति से एक चक्र
बनता है। जैसे पृथ्वी के अपनी धुरी पर निरंतर घूमते रहने से आकर्षण शक्ति पैदा होती
है। ठीक इसी प्रकार जप की परिभ्रमण क्रिया से शक्ति का अभिवर्द्धन होता है। पदार्थ
तंत्र में पदार्थ को जप से शक्ति एवं विधुत में परिवर्तित किया जाता है। जगत का मूल
तत्व विधुत ही है। प्रकंपन द्वारा ही सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थ का अनुभव होता है। वृक्ष,
वनस्पती, विग्रह, यंत्र,
मूर्ति, रंग, रुप आदि सब
विद्युत के ही तो कार्य हैं। जो स्वतःचालित प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा संचालित हो
रहे हैं। परंतु सुनने में यह अनोखा सा लगता है कि किसी मंत्र, दोहा, चोपाई आदि का सतत जप कार्य की सिद्धि भी करवा सकता
है। अज्ञानी तथा नास्तिक आदि के लिए तो यह रहस्य-भाव ठीक भी है, परंतु बौद्धिक और सनातनी वर्ग के लिए नहीं।
रुद्रयामल तंत्र में शिवजी ने कहा
भी है - ‘‘हे प्राणवल्लभे। अवैष्णव, नास्तिक,
गुरु सेवा रहित, अनर्थकारी, क्रोधी आदि ऐसे अनाधिकारी को मंत्र अथवा नाम जप की महिमा अथवा विधि कभी न दें।
कुमार्गगामी अपने पुत्र तक को यह विद्या न दें। तन-मन और धन से गुरु सुश्रुषा करने
वालों को यह विधि दें।’’
किसी भी देवी-देवता का सतत् नाम
जप यदि लयबद्धता से किया जाए तो वह अपने में स्वयं ही एक सिद्ध मंत्र बन जाता है। जप
की शास्त्रोक्त विधि तो बहुत ही क्लिष्ट है। किसी नाम अथवा मंत्र से इक्षित फल की प्राप्ति
के लिए उसमें पुरुश्चरण करने का विधान है। पुरुश्चरण क्रिया युक्त मंत्र शीघ्र फलप्रद
होता है। मंत्रादि की पुरुश्चरण क्रिया कर लेने पर कोई भी सिद्धी अपने आराध्य मंत्र
के द्वारा सरलता से प्राप्त की जा सकती है। पुरुश्चरण के दो चरण हैं। किसी कार्य की
सिद्धी के लिए पहले से ही उपाय सोचना, तदनुसार अनुष्ठान करना
तथा किसी मंत्र, नाम जप, स्तोत्र आदि को
अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए नियमपूर्वक सतत् जपना इष्ट सिद्धि की कामना से सर्वप्रथम
मंत्र, नामादि का पुरश्चरण कर लें। अर्थात मंत्र में जितने अक्षर
हैं उतने लाख जप करें। मंत्र का दशांश अर्थात दसवां भाग हवन करें। हवन के लिए मंत्र
के अंत में ‘स्वाहा’ बोलें। हवन का दशांश
तर्पण करें। अर्थात मंत्र के अंत में ‘तर्पयामी’ बोलें। तर्पण का दशांश मार्जन करें अर्थात मंत्र के अंत में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’
बोलें। मार्जन का दशांश साधु ब्राह्मण आदि को श्रद्धा भाव से भोजन कराएं,
दक्षिणादि से उनको प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद लें। इस प्रकार पुरुश्चरण
से मंत्र साधक का कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता।
अपने-अपने बुद्धि-विवेक अथवा संत
और गुरु कृपा से आराध्य देव का मंत्र, नाम, स्तोत्रादि चुनकर आप भी उसे सतत् जपकर जीवन को सार्थक बना सकते हैं। लम्बी
प्रक्रिया में न जाना चाहें तो अपने आराध्य देव के शत, कोटि अथवा
लक्ष नाम जप ही आपके लिए प्रभावशाली मंत्र सिद्ध हो सकते हैं। भौतिक इक्षाओं की पूर्ति
के लिए आप सरल सा उपाय भी कर सकते हैं। बौद्धिक पाठक गण यदि मंत्र सार, मंत्र चयन आदि की विस्तृत प्रक्रिया में भी जाना चाहते हैं तो वह पुस्तक ‘मंत्र जप के रहस्य’ से लाभ उठा सकते हैं।
प्रस्तुत प्रयोग पूरे 100 दिन का है अर्थात इसे सौ दिनों में पूरा करना है। बीच में यदि कोई दिन छूट
जाए तो उसके स्थान पर उसी क्रम में दिनों की संख्या आप आगे भी बढ़ा सकते हैं। जिस प्रयोजन
के लिए नाम, मंत्रादि, जप प्रारम्भ कर रहे
हैं उसके अनुरुप बैठने का एक स्थान सुनिश्चित कर लें :
प्रयोजन स्थान
सर्व कार्य
सिद्धि अगस्त्य
अथवा पीपल के नीचे
लक्ष्मी
कृपा कैथ अथवा
बेल वृक्ष के नीचे
संतान
सुख आम, मालती अथवा अलसी वृक्ष के नीचे
भूमि-भवन जामुन वृक्ष के
नीचे
धन-धान्य बरगद अथवा कदम्ब
वृक्ष के नीचे
पारिवारिक
सुख विवाह आदि किसी नदी
का तट
आरोग्य
अथवा आयुष्य शिव मन्दिर
सर्वकामना
सिद्धि देवालय
अथवा पवित्र नदी का तट
प्रयोग काल में शब्द, नाम अथवा मंत्रादि आपको अपने प्रयोजन हेतु जिस पत्र पर लिखना है, उसका विवरण निम्न प्रकार से है :
प्रयोजन पत्र
सुख-समृद्धि केले के पत्र
पर
धन-धान्य भोजपत्र पर
मान-सम्मान पीपल पत्र पर
सर्वकामना
सिद्धि अनार
के पत्र पर
लक्ष्मी
कृपा बेल
के पत्र पर
मोक्ष तुलसी पत्र
धन प्राप्ति कागज पर
संतान-गृहस्त
सुख भोज पत्र
पर
वैसे तो अष्ट गंध की स्याही सर्वकामना
हेतु किए जा रहे मंत्र के अनुसार निम्न कार्य हेतु किए जा रहे मंत्र सिद्धि के लिए
उपयुक्त है तथापि महानिर्वाण तंत्र के अनुसार निम्न कार्य हेतु अलग-अलग स्याही भी चुन
सकते है :
प्रयोजन स्याही
सर्व कार्य
सिद्धि केसर तथा चंदन
मोक्ष सफेद चंदन
धनदायक
प्रयोग रक्त चंदन
आरोग्य गोरोचन तथा गोदुग्ध
संतान
सुख चंदन तथा कस्तूरी
शुभ कार्य गोरोचन, चंदन, पंच गंध
(सफेद
तथा लाल चंदन, अगर तगर तथा केसर)
किसी शुभ मुहूर्त तथा होराकाल में
गणपति जी का ध्यान करके सरलतम् विधि द्वारा मंत्र क्रिया प्रारम्भ करें। कौन सा मंत्र
अथवा नाम आदि सिद्धि के लिए चुन रहे है तथा मूलतः आपका इस सिद्धि के पीछे प्रयोजन क्या
है आदि सब पूर्व में ही सुनिश्चित कर लें। तदनुसार 11 पत्र अपने
पास रख लें। चुने गये शुभ कार्य में भूत शुद्धि, प्रणायाम आदि
से प्ररांभ करके चुने गए नाम अथवा मंत्र आदि से संबद्ध देव का सुन्दरतम रुप अपने मन
में बसा लें। उनकी संक्षिप्त अथवा सुविधानुसार षोड्शोपचार मानसिक पूजा कर लें। प्रारंभ
में प्रेम भाव से 3 बार प्रणव ‘ॐकार’
का उच्चारण करके मंत्रादि की 11 माला जप करें।
कार्यानुसार वैसे तो माला का चयन भी आवश्यक है तथापि अपने किसी भी प्रयोजन के लिए कमलगटटेकी माला आप प्रयोग कर सकते हैं। माला न भी सुलभ हो तो करमाला से जप प्रारंभ कर सकते
हैं। जो पाठकवृंद जप की विस्तृत प्रक्रिया में जाना चाहते हैं वह मंत्र जप संबन्धी
अन्य सामग्री भी देख सकते हैं। मेरी पुस्तक ‘मंत्र जप के रहस्य’
भी संभवतः इन सब बातों के लिए उपयोगी सिद्ध हो। आपका मॅुह पूरब अथवा
उत्तर दिशा में होना चाहिए। 11 माला जप के बाद 11 बार यही नाम अथवा यही मंत्र आप कार्यानुसार चुने हुए पत्र पर स्याही से अंकित
कर लें। जप निरंतर चलता रहे। मंत्र यदि लम्बा है और 11 पत्रों
में न लिखा जा पा रहा हो तो पत्रों की संख्या आप आवश्यकतानुसार बढ़ा भी सकते हैं। अच्छा
हो यदि यह सब व्यवस्था आप पूर्व में ही सुनिश्चित कर लें। यह क्रिया अर्थात मंत्र जप
और 11 बार लेखन आपको कुल 100 बार 100 दिनों अथवा बीच में क्रिया छूट जाने के कारण उतने ही अधिक दिनों में पूर्ण
करने हैं। अंत में लिखे हुए सब जमा पत्र कहीं बहते हुए जल में विसर्जित कर दें। विकल्प
के रुप में यह पत्र अपने भवन के किसी शुभ स्थल जैसे पूजा ग्रह, रसोई अथवा ब्रह्म स्थल आदि में नीचे धरती में दबा सकते हैं। यह भी सुलभ न हो
तो यह पत्र किसी शुभ वृक्ष की जड़ में भी दबा सकते हैं।
पूरे अनुष्ठान काल में यदि आप निरामिष,
अकेले रहें तथा एक ही बार भोजन ग्रहण करें तो वांछित फल की प्राप्ति
शीघ्र होगी। यदि यथा संभव निम्न बातों का और ध्यान रख सकते हैं, तब तो सोने पे सुहागा है :
- मंत्र क्रिया का उददेश्य सात्विक तथा
दुष्कामना से दूर हो।
- प्रयोग काल में मन, कर्म व वचन से आप शुद्ध हों।
- ब्रह्मचर्य तथा कुशासन अथवा कंबल का
प्रयोग करें।
- लेखन कार्य उसी नाप अथवा मंत्रोच्चार
साथ-साथ करें। इस काल में जप के अतिरिक्त कुछ न बोलें।
- प्रयास रखें कि प्रत्येक दिन का प्रयोग
एक निश्चित समय तथा समयावधि में ही पूर्ण करें।
- सकाम अनुष्ठान साधक कम से कम उक्त
नियम का अवश्य अनुपालन करें। निष्काम जप अथवा लेखन काल में तो किसी भी देश,
काल एवं परिस्थिति आदि का बंधन है ही नहीं।
- संयम और अंतःकरण की पवित्रता का सदैव
ध्यान रखें।
गोपाल राजू की पुस्तक
‘‘मंत्र जपके रहस्य’’
का सार
संक्षेप
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