गोपाल राजू की पुस्तक 'स्वयं चुनिये अपना भाग्यशाली रत्न'
का सार-संक्षेप
सूर्य पुत्र शनि ग्रह की तथाकथित् ढइया और साढ़ेसाती दोष दुष्प्रभाव ज्योतिष शास्त्र में तीन स्थितियों से निर्धारित किया जाता है।
व्यक्ति की जन्म कुण्डली में लग्न से तथा चन्द्र और सूर्य की विभिन्न भावगत स्थितियों
से । भचक्र में शनि ग्रह का बारह राशियों में गोचर वश भ्रमण लगभग तीस वर्षों में पूर्ण
होता है। व्यक्ति के जन्म विवरण उपलब्ध न होने की स्थिति में प्रायः उसके चलित नाप
की राशि से यह दोष देखे जाते हैं। लग्न, चन्द्र, सूर्य अथवा नाम राशियों से शनि जब चौथी और आठवीं राशियों में प्रवेश करता है
तब यह स्थिति शनि की ढइया तथा बारहवीं, पहली और दूसरी राशियों
पर का भ्रमण काल शनि की साढ़े साती कहलाता है। शनि ग्रह की यह स्थितियाँ तीन प्रकार
से अर्थात् तीन चरणों में अपना दुष्प्रभाव दिखलाती हैं। पहले चरण में व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ता है। वह सामान्य व्यवहार से इधर-उधर भटकने लगता है। उसके प्रत्येक कार्य
में अस्थिरता आने लगती है। व्यर्थ के कष्ट और अकारण उपजी उलझने उसके दुःखों का कारण
बनने लगती है। दूसरे चरण में व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रीक रोग घेरने लगते हैं। तीसरे
चरण तक दुःख और कष्ट झेलते-झेलते वह जीवन से त्रस्त हो जाता है। तीनों, दैहिक, भौतिक और आध्यात्मिक कष्टों के कारण जीवन नैराश्य,
मानसिक संत्रास, ग्रह क्लेष, अस्थिरता, रोग-शोक आदि के मिले-जुले कष्टों में व्यतीत
होने लगता है।
शनि ग्रह के फलित में दुष्प्रभाव देने के सामान्यतः
माने गए मूल कारण शनि की ढइया और शनि की साढ़े साती, देखा जाए तो तीस
वर्ष में व्यक्ति दो बार अर्थात् पांच वर्ष शनि की ढइया और एक बार अर्थात् साढ़े सात
वर्ष शनि की साढ़े साती अर्थात् कुल साढ़े बारह वर्ष का कोप भाजन बनना पड़ता है। दूसरे
शब्दों में कहें तो जीवन के आधे से अधिक समय व्यक्ति तीन बार साढ़े साती और छः बार
ढइया अर्थात् पूरे साढ़े सैतींस वर्ष तो शनि के इस तथाकथित दोष को भोगने में ही व्यतीत
कर देता है। अत्यन्त सामान्य सी भाषा में इस शनिग्रह के कष्ट देने के लिए कह दिया जाता
है कि शनि तो बस एक न्यायाधीश है, वह स्वयं कुछ नहीं करता। वह
तो व्यक्ति के जन्म-जन्मान्तरों के दुष्कर्मों के भोग का बस उचित न्याय मात्र करता
है। जो सजा व्यक्ति के लिए निर्धारित होती है, कष्टों के रूप
में इन वर्षों में तद्नुसार वह व्यक्ति को काटनी ही पड़ती हैं।
यह तो हुई मात्र एक चन्द्र लग्न से गणना की गयी
शनि दोष की बात। यदि सूर्य और लग्न की अथवा नाम की राशियों से भी दोष की गणना की जाए
तब तो व्यक्ति का एक जीवन क्या दो-चार जीवन भी कम पड़ जाएंगे सजा भोगने के लिए।
बौद्धिकता से देखा जाए तो शनि ग्रह के इस महादोष
की मान्यता निरर्थक और हास्यप्रद लगेगी। ऐसा भी नहीं है कि शनि के यह दोष कल्पना मात्र
ही हैं। दोष हैं अवश्य परन्तु अज्ञानता में शनि का भूत और शनि का हौवा अधिक बना दिये
गये हैं। किसी व्यक्ति को कहीं भी, कभी भी कोई कष्ट हुआ,
कोई आर्थिक संकट आया, किसी असाध्य रोग ने घेरा
तो बस अज्ञानता में यह बलात् मन में बैठा दिया जाता है कि शनि का कोप है, शनि के लिए दान-पुण्य करो।
ज्योतिष शास्त्र में किसी एक ग्रह को लेकर किया
गया निर्णय सर्वथा अनुचित है और केवल अज्ञानता और भय उत्पन्न करने वाली ज्योतिष का
ही अकारण निमित्त है। विभिन्न भावगत ग्रह स्थिति, बलाबल,
दशा, अन्तर्दशा, षोडश वर्ग,
अष्टक वर्ग आदि द्वारा समस्त ग्रहों का अवलोकन किए बिना शनि के इस महादोष
की गणन करना सर्वथा अनुचित है। शुभ और अशुभ का जीवन में निर्णय ग्रह-नक्षत्रों तथा
ग्रहगोचर के संयुक्त ज्ञान और विशुद्ध गणनाओं के आधार पर ही किया जाना चाहिए। इसलिए
पहले भय का भूत तो मन से बिल्कुल ही हटा दें।
तथापि् यदि वास्तव में कोई व्यक्ति
शनि की पीड़ा का कारण बन रहा है तो उनके लिए सरल से अनेकों विकल्प हैं।
रत्नों का विकल्प अपने दीर्घ कालीन अध्ययन-मनन
में मैंने प्रभावशाली पाया है। अपनी फाइलों से छाँटकर एक बहुत ही पुराना विवरण दे रहा
हूँ ।अपनी पुस्तक के इस उदाहरण को चुनने का विशेष कारण यह है कि उपयुक्त रत्न यदि किसी
दोष का गणना कर लिया जाये तो बहुत ही सन्तोष जनक परिणाम मिल सकते हैं।
बरेली में 8 नवम्बर 1945 को दिन में 12 बजकर
55 मिनट पर जन्मे एक सज्जन की कुण्डली में मकर राशि की लग्न में सप्तम भाव में शनि
एवं मंगल, नवम भाव में गुरू, दशम भाव की
तुला राशि में सूर्य और शुक्र, एकादश भाव की वृश्चिक राशि में
बुध और चन्द्रमा तथा छठे और बारहवें भाव में क्रमशः राहु और केतु स्थित थे। दुर्भाग्य
की दृष्टि से देखा जाए तो यह पत्री अपने में सबसे निकृष्ट पत्री देखी है मैंने अपने
जीवन में। इनके विषय में प्रचलित था कि चाहे खेल का मैदान हो या कोई राग-रंग का कार्यक्रम,
सबमें इनका नाम चर्चित रहता था। गायन, चित्रकारी,
लेखन, भ्रमण, अध्ययन,
मनन आदि अनेकों विद्याओं में इनकी अच्छी जानकारी थी।
परन्तु ग्रहों के दुष्प्रभाव के कारण जीवन के किसी भी पहलू को वह पूर्णतः नहीं छू सके। जीवन के अभावों में अध्ययन कार्यों में भी इनके अनेकों व्यवधान आते रहे। शनि का तुला राशि में प्रवेश उनके जीवन में स्थिरता तथा गंभीरता लाने लगा। जीवन को सफल बनाने का उन्होंने एक लक्ष्य बना लिया गुह्य विद्याओं में शोधपरक कार्य करने का । यहाँ से धन, नाम, तथा जीवन की सुख सुविधाएं उनको मिलने लगीं।
परन्तु ग्रहों के दुष्प्रभाव के कारण जीवन के किसी भी पहलू को वह पूर्णतः नहीं छू सके। जीवन के अभावों में अध्ययन कार्यों में भी इनके अनेकों व्यवधान आते रहे। शनि का तुला राशि में प्रवेश उनके जीवन में स्थिरता तथा गंभीरता लाने लगा। जीवन को सफल बनाने का उन्होंने एक लक्ष्य बना लिया गुह्य विद्याओं में शोधपरक कार्य करने का । यहाँ से धन, नाम, तथा जीवन की सुख सुविधाएं उनको मिलने लगीं।
पंचधा मैत्री से देखें तो शनि के मित्र हैं शुक्र, राहु और गुरू। तुला राशि में शनि बलवान होता है। साढ़े साती प्रारम्भ होने
से कुछ दिन पूर्व ही मैंने उनको एक नीलम रत्न धारण करवाया था। पुखराज वह पूर्व में
पहने ही हुए थे। साढ़े साती प्रारम्भ होते ही कुछ दिन उनके जीवन में कलह, क्लेष, तथा तरह-तरह से कष्ट और आर्थिक कठिनाइयाँ प्रारम्भ
हो गयी। अपने रत्न चयन को लेकर मैं पूर्णतः आश्वस्त था। एक बार पुनः मैंने उनकी जन्मपत्री
का अवलोकन किया। शनि के गोचर स्थान से आठवीं राशि गुरू की पड़ती है। गुरू का रत्न पुखराज
यहाँ अरिष्टकारी बन रहा था, उसको तुरन्त उतारने का मैंने उनको
परामर्श दिया।
पुखराज का उतरना था कि चमत्कारी रूप से शनि के दुष्प्रभावी साढ़े साती का भी सुप्रभाव उनके जीवन में प्रारम्भ हो गया। शनि के वृश्चिक राशि को पार करते ही अर्थात् 16 दिसम्बर 1987 से उनके जीवन में दुर्भाग्य का पुनः पर्दापण हो गया। जो सज्जन हवाई यात्रा और अच्छे से अच्छे होटलों में अपना समय बिताते थे उनके पास एक पुरानी कार भी नहीं बची। उनकी मनःस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। जन्म पत्री का अवलोकन करने पर स्पष्ट हुआ कि धनु राशि (जहां गोचरवश शनि स्थित था) से शनि अष्टम भाव में स्थित था। यह शनि की साढ़े साती का पूर्ण रूप से अपना दुष्प्रभाव दिखलाकर उनके जीवन को उथल-पुथल कर रहा था। मैंने उनको नीलम उतरवाकर पुनः पुखराज धारण करवा दिया। एक माह के अन्दर-अन्दर ही उनका जीवन पुनः स्थिर होने लगा।
पुखराज का उतरना था कि चमत्कारी रूप से शनि के दुष्प्रभावी साढ़े साती का भी सुप्रभाव उनके जीवन में प्रारम्भ हो गया। शनि के वृश्चिक राशि को पार करते ही अर्थात् 16 दिसम्बर 1987 से उनके जीवन में दुर्भाग्य का पुनः पर्दापण हो गया। जो सज्जन हवाई यात्रा और अच्छे से अच्छे होटलों में अपना समय बिताते थे उनके पास एक पुरानी कार भी नहीं बची। उनकी मनःस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। जन्म पत्री का अवलोकन करने पर स्पष्ट हुआ कि धनु राशि (जहां गोचरवश शनि स्थित था) से शनि अष्टम भाव में स्थित था। यह शनि की साढ़े साती का पूर्ण रूप से अपना दुष्प्रभाव दिखलाकर उनके जीवन को उथल-पुथल कर रहा था। मैंने उनको नीलम उतरवाकर पुनः पुखराज धारण करवा दिया। एक माह के अन्दर-अन्दर ही उनका जीवन पुनः स्थिर होने लगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि शनि की साढ़े साती का उचित निदान मिल जायें तो ग्रह का विपरीत प्रभाव भी शुभप्रद सिद्ध होने लगता है।
साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय आप भी ध्यान
रखें कि रत्न से सम्बन्धित उस ग्रह का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध उसके गोचर भाव से
छठे एवं आठवें भाव से ना हो।
दूसरे, शनि का तथाकथित् यह दाष
यदि वास्तव में पीड़ा का कारण बन रहा है तब क्या वह मात्र शनिवार को ही दान करने से
ही दूर हो जाएगा? बौद्धिकता से मनन करें। यदि कष्ट है तब वह तो
हर दिन पीड़ा कारक सिद्ध होगा। इस लिए उपाय करना है तो प्रतिदिन क्यों न किया जाए।
एक धातु का पात्र ले लें। उसमें लोहे का एक काल पुरूष, जैसा कि शनि दान लेने वालों के पास होता है,
स्थापित कर लें। इसको घर के मुख्य द्वार से बाहर कहीं सुरक्षित रख लें।
प्रातः उठकर जो भी पूजा धर्म, ध्यान करते हैं, कर लें। एक चम्मच में सरसों का तेल भरकर उसमें अपना चेहरा देखने का प्रयास
करें। मन में श्रद्धा से यह भाव जगाएं कि हमारे शनि दोष द्वारा जनित समस्त कष्ट धीरे-धीरे
न्यून होकर समाप्त हो रहे हैं। ऐसी भावना के साथ तेल पात्र में छोड़ दें।
यह कर्म यथासम्भव प्रत्येक दिन करते रहें। जब
लगे कि पात्र तेल से भरने लगा है तब उसके तेल को शनि दान लेने वाले को दान कर दें।
पात्र पुनः प्रयोग करने के लिए यथा स्थान स्थापित कर दें। सुविधा की दृष्टि से तेल
की एक शीशी पात्र के पास कहीं रख सकते हैं। मात्र एक इस सरल से उपाय द्वारा शनि ग्रह
जनित कष्टों से आपको मुक्ति मिलने लगेगी।
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