जीवन, मरण, लोक, परलोक, स्वर्ग और नरक आदि
गूढ़ विषय यदि सद्साहित्य में तलाशें तो इनके लिए कोई समान सार्वत्रिक नियम नहीं है।
परन्तु प्रत्येक जीव की स्व-स्व कर्मानुसार विभिन्न गति होती है, यही कर्मविपाक का सर्वतंत्र सिद्वांत है। सार यह निकलता है जीव कि कर्मानुसार
स्वर्ग और नरक आदि लोकों को भोगकर पुनरपि मृत्युलोक में जन्म धारण करे और दूसरे जिसमें
प्राणी जीवत्व भाव से छूटकर जन्म मरण के प्रपंच से सदा के लिए उन्मुक्त हो जाए।
वेदादि शास्त्रों में उक्त दोनों गतियों को कई
नामों से जाना गया है। श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार देव, मनुष्य आदि प्राणियों की मृत्यु के अनन्तर दो गतियाँ होती है-
इस जंगम जगत के प्राणियों की अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण
से उपलक्षित अपुनरावृत्ति-फलक प्रथम गति तथा धूम, रात्रि,
कृष्णपक्ष और दक्षिणायन से उपलक्षित पुनरावृत्ति-फलक दूसरी गति अनादि
काल से चली आ रही है। इसमें दूसरे मार्ग से प्रयाण करने वाला प्राणी कर्मानुसार पुनः
पुनः जन्म मरण के वक्र चक्र में पड़कर आ-ब्रह्मलोक परिभ्रमण करता रहता है परन्तु प्रथम
मार्ग से प्रयाण करने वाला जीव सूर्यमण्डल भेदन करके सर्वदा के लिए जन्म और मरण के
बन्धन से छूट जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। मोक्ष के अर्थ के लिए साधारण
सी भाषा में प्रायः कह दिया जाता है कि छुट्टी मिल गयी, मुक्ति
हो गयी, पीछा छुटा, झंझटो से दूर हुए,
ब्रह्म में लीन हो गये, सांसारिक बंधनों से छुटकारा
मिल गया, जन्म-जन्मान्तर के चक्कर से मुक्ति मिल गयी आदि। दार्शनिक
विचारकों में मोक्ष के विषय में मतभेद है चार्वाक के अनुसार देहनाश अर्थात् शरीर का
अन्त ही मोक्ष है। शून्यवाद बौद्ध आत्मा के उच्छेद को मोक्ष मानते हैं। अन्य बौद्ध
निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति को मोक्ष कहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार कर्म से उत्पन्न
आवरण के नाश से जीव का निरन्तर ऊपर उठना ही मोक्ष है। वैशिषिक का मत है कि आत्मा के
समस्त विशेष गुणों का अभाव होना ही मोक्ष है। नैर्यायक कहते हैं कि 21 प्रकार के दुःखों (6 ज्ञानेन्द्रिय, उनसे उत्पन्न 6 ज्ञान, उनमें 6 विषय, सुख-दुख और शरीर) की आत्यन्तिक निवृत्ति मोक्ष
है। मीमासंको के अनुसार विहित वैदिक कर्म के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करना ही मोक्ष
है। सांख्य दर्शन का मत है कि प्रकृति जब पूर्णतया उपरत हो जाए तब पुरूष का अपने स्वरूप
में स्थित होना मोक्ष है योग दर्शनकार के अनुसार चित्शक्ति का निरूपाधिक रूप से अपने
आप में स्थित होना मोक्ष है रामानुज सम्प्रदाय में ईश्वर के गुणों की प्राप्ति के साथ
ईश्वर के स्वरूप का अनुभव होना मोक्ष है। माहवमत
में दुःख से मिले पूर्ण सुख की प्राप्ति ही मोक्ष हैं।
मोक्ष अवस्था में जीव को ईश्वर के तीन गुण (सृष्टि
कर्तव्य, लक्ष्मीपतित्व और श्रीवत्स की प्राप्ति) को छोड़कर सब
कुछ प्राप्त होता है। पाशुमत दर्शन में परमेंश्वर (पति) बन जाना, शैव, दर्शन में शिव हो जाना और प्रत्यमिज्ञा दर्शन में
पूर्ण आत्मा की प्राप्ति को मोक्ष कहा गया है। रसेश्वर दर्शन में रस के सेवन से देह
का स्थिर हो जाना और जीते जी मुक्त होना मोक्ष है। वैयाकरणों का कहना है कि मूलाधार
चक्र में स्थित परा नामक ब्रह्मरूपणी वाक् का दर्शन कर लेना ही मोक्ष है। अद्वैत वेदान्तोंमें मूल दर्शन कर लेना ही मोक्ष है। अद्वैत वेदान्त में मूल ज्ञान के नष्ट हो जाने
पर अपने स्वरूप की अनुभूति अर्थात् आत्म साक्षात्कार ही मोक्ष है।
''सर्वसार दर्शन सार'' में जाएं तो विद्वच्चश्णानुरागी स्वामी शान्तिधर्मानन्द सरस्वती के विचारों
का सर्व-सार सत इस प्रकार बहुत ही सरल रूप में मिलता है जो मोक्ष गूढ़ विषयक सत्य को
स्पष्ट कर देता है।
शास्त्रकारों ने मोक्ष प्राप्त करने के दस साधन
बताए हैं-
1 मौन अर्थात् इन्द्रियजित होकर वाणी का संयम कर ले। वाणी का प्रयोग कभी सांसारिक
कार्यों में ना करें।
2 ब्रह्मचर्य व्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य का विधिवत् पालन करें। श्रुति कहती है
कि केवल ब्रह्मचर्य व्रत से ही जीव की मुक्ति हो जाती है।
3 शास्त्र श्रवण निरन्तर करते रहें और श्रवण के पश्चात् उसका सतत् मनन और निदिध्यासन
चलता रहे तो भी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
4 तप अर्थात् तपस्या से अहं मिटता है, तपस्या की उत्तरोत्तर
वृद्धि से ब्राह्मी स्थिति को जीव प्राप्त होता है अर्थात् बह्म में लीन हो जाता है।
5 अध्ययन अर्थात् बुद्धि का व्यायाम । निरन्तर शास्त्र अध्ययन और तद्नुसार उसका
चिन्तन-मनन जीव को ब्रह्मावगामिनी बनाता है । भगवद् गीता के अनुसार भी बुद्धि के समीप
ही तो ब्रह्म है ।
6 स्वधर्म पालन अर्थात् जिस वर्ण के हों, जिस मत के हों,
जिस आश्रम आदि के हों, धर्म का पालन करते रहें
- यह भी मोक्ष का मार्ग है।
7 शास्त्रों की व्याख्या अर्थात् शास़्त्रों की प्रबल युक्तियों द्वारा युक्तियुक्त
व्याख्या करें। यह भी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। व्याख्या करते समय बुद्धि अत्यन्त
सूक्ष्म हो जाती है और ब्रह्म तो सूक्ष्माति सूक्ष्म है । स्थूल बुद्धि वाले तो स्थूल
शरीर ही पा सकते है।
8 एकान्तवास अर्थात् संसारी कोलाहल और चकाचौंध से दूर । एकान्तवास का अर्थ अपने
दायित्वों से भागकर पर्वत, जंगल, आश्रम
आदि में भाग जाना कदापि नहीं है। 9 जप अर्थात् निरन्तर नाम मंत्र
जप वाला भी मोक्ष को प्राप्त होता है। मंत्र जाप की महिमा का इससे बड़ा कोई उदाहरण हो
ही नहीं सकता, जो शिव जी ने पार्वती जी से '' हे वरानने पार्वती मैं तीन बार प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि केवल जप मात्र से
ही इष्ट कार्य की सिद्धि हो जाती है।''
अब यह
बात निर्भर करती है अपने-अपने बुद्धि और विवेक पर कि व्यक्ति को भौतिक सुखों की चाह
है या इससे विमुख होकर पारलौकिक सुखों की।
10 समाधि भी मुक्ति का एक निमित्त बताया है। शास्त्रकारो ने आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,
ध्यान और अन्ततः समाधि इन छः को योग शास्त्रों में षड़ंग योग कहते हैं।
इनमें प्रथम तीन तो बाह्य साधना और अन्तिम तीन-धारणा, ध्यान और
समाधि आन्तरिक साधन कहलाते हैं। समाधि से मन एकाग्र होता है परन्तु साथ में मन निर्मल
होना परम आवश्यक है, नही तो पुनः जीव भौतिक वाद में पहुँच जाएगा।
जब शरीर में मल न रहकर निर्मल बन जाए, मन में विक्षेप न होकर
बिना विक्षेप के बन जाए और बुद्धि का आवरण हटकर निरावरण बन जाए तो समाधि से मोक्ष की
अवस्था प्राप्त हो जाती है।
मानसश्री गोपाल राजू
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