रूड़की - 247 667 (उत्तराखण्ड)
एश्वर्य, भोग-विलास, धन-सम्पदा आदि भौतिकवादी
भोगों के साथ-साथ हर कोई ध्यान, शान्ति, स्वास्थ्य, अध्यात्म, योग आदि के
लिए आज ऐसी दिव्य, भावशाली औषधि, विधि,
क्रिया तलाश रहा है जो सब कुछ अलाउद्दीन के चिराग़ की तरह तत्काल उपलब्ध
करवा दे। इसके लिए जगह-जगह दुकानें खुल रही हैं। दान, अनुदान,
धन-सम्पदा आदि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में दें और यह सब क्रय कर लें अथवा कृपा प्रसाद स्वरूप प्राप्त
कर लें। देखा जाए तो जितने अधिक स्कूल आज खुल
रहें हैं उतनी ही अधिक मानसिक अराजकता बढ़ रही है। यह सब कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं
है। हम सब यह अच्छी तरह से जानते हैं, समझते हैं और दैनिक जीवन
में नित्य देख रहे हैं, कर रहे हैं और परिणाम, जो कुछ भी हैं अच्छे या बुरे, भोग रहे हैं।
ध्यान के लिए विश्व स्तर पर इधर विपश्यना (Vipassana) विधि का चलन बहुत प्रचलित हो रहा है।
विपश्यना आत्मशुद्धि और आत्म निरीक्षण की एक अत्यन्त प्राचीन
क्रिया साधना है। इसका अर्थ है अपनी श्वास को देखना और उसके प्रति सजग होना। चिरन्तर
से ऋषि, मुनी झूठ, पाप, अत्याचार, व्यभिचार, काम,
क्रोध आदि से अलग-थलग संयम और सदाचार का जीवन जीने, मन को साधने और आत्मा को निर्मल बनाने के लिए विपश्यना क्रिया का सहारा लेते
रहे हैं। महात्मा बुद्ध ने इसका सरलीकरण करके इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया इसके
उन्होंने दो रुप दिए - बैठे-बैठे ध्यान योग द्वारा विपश्यना क्रिया और शांत-चित्त से
अंगो को शिथिल करके टहलते हुए विपश्यना क्रिया। तदन्तर में आचार्य श्री राम,
ओशो तथा बाबाराम देव आदि ने क्रिया को नवीन रूप देकर इसका व्यापक प्रचार-प्रसार
किया। कुल सार-सत यह है कि विपश्यना झूठ, पाप, व्यवभिचार से अलग सदाचार, आत्मसुख आदि का जीवन जीने की
एक ध्यान विधि है जिसमें सतत् जागरूक रहकर मन की गतिविधियों का वस्तुतः अवलोकन करना
होता है।
विपश्यना क्रिया में कोई लिंग भेद, वर्ण,
जात-पात, आयु-अवस्था, धनाढ्य-दरिद्र
आदि का कहीं कोई बन्धन नहीं है। विपश्यना क्रिया साधना सहज है, सरल है और सुगम है। इसलिए बिना ज्ञान-ध्यान और प्रपंच के एक छोटा बच्चा अथवा
अशिक्षित आदि कोई भी इसको जीवन में अपना सकता है। विपश्यना एक ऐसी क्रिया है जो ज्ञान,
पुरुषार्थ, योग्य गुरू की कृपा के बिना भी सहजता
से सिद्ध की जा सकती है। विपश्यना क्रिया उठते-बैठते, सोते-जागते,
घर में, घर से बाहर, किसी
भी समय और किसी भी अवस्था में कोई भी कर सकता है। साधना में न कपाल भाति, न अनुलोम-विलोम, न सोहऽम्, न योग
क्रिया, न सुदर्शन क्रिया आदि किसी भी क्लिष्ट बातों में नहीं
जाना है। बस देखना है और अवलोकन करना है।
रोग-शोक तथा सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाने के लिए विपश्यना
साधन राम बाण सिद्ध हुई है। असाध्य रोग तक ठीक होना इसके द्वारा सम्भव है। मन को शान्ति
प्रदान करने का यह एक प्रभावशाली उपक्रम है। हम अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन और अपने हृदय के प्रति जागरूक बनते
हैं। कोई भी ऐसे रोग जो, वस्तुतः रोग नहीं हैं और केवल मानसिकता
के रूप में मस्तिष्क में जन्म लेकर शरीर में विकार के रूप में पनप गए हैं, उनका निदान तो निश्चित रूप से इस क्रिया द्वारा सम्भव है। मानसिक संत्रास,
अवसाद, आलस्य, उदासी,
कार्य के प्रति अरुचि, ईर्ष्या-द्वेष आदि कलुषित
भाव-भावनाएं तो साधक के पास से स्वतः ही दूर भाग जाती हैं। साधक के मन में हर समय एक
आत्म सन्तुष्टि, दिव्यता, प्रसन्नता,
उल्लास बना रहता है। साधना की चरम सीमा पर पहुँचकर तो रक्त चाप,
मधुमेह त्वचा रोग, श्वास रोग, अनिद्रा रोग, अवसाद, मानसिक संत्रास
आदि अनेकों रोगों का अभ्यास के द्वारा शमन किया जा सकता है। सौन्दर्य, रूप-लावण्य, अध्ययनरत छात्र-छात्राओं में ज्ञान के प्रति
रुचि और विलक्षण बुद्धि का तो स्वतः समावेश होने लगता है। भौतिक अपेक्षाओं से अलग आध्यात्मिक
मार्ग पर प्रशस्त होना, प्रज्ञा ज्ञान, दिव्यता और यहाँ तक कि मोक्ष और निर्माण साधक को प्राप्त होता है, यह सत्य है और परम सत्य है।
मन को साधने की क्रिया से माना आपने मन को तो साध लिया। दिव्यता
को प्राप्त हो गए। अनेक सिद्धियों के स्वामी बन गए। भौतिक जगत की तमाम उपलब्धियाँ प्राप्त
हो गयीं। स्वस्थ शरीर और सुन्दर काया, रूप-लावण्य के धनी बन गए।
परन्तु मन को साधने के बाद भी लोभ, लालच, हवस, कलुषता और मन की निर्मलता से सर्वथा दूर रहे तब
तो साधना से लाभ के विपरीत अनर्थ ही अनर्थ मिलने की सम्भावना बढ़ जाएगी। मन को तो साध
लिया परन्तु मन और भाव यदि निर्मल नहीं बनाया तो विपश्यना साधन व्यर्थ ही समझें। चोरों
की भावना लोभ और लालच वश होती है। क्योंकि मन निर्मल नहीं है इसलिए कभी भी मन में लालच
आते हीे चोरी जैसा अपराध मन करवा ही देगा। मन में क्रोध जागना स्वाभाविक है,
क्योंकि मन निर्मल नहीं है। विपश्यना साधन के बाद भी इसलिए वह हत्या
जैसा जघन्य अपराध तक करवा देगा। उपलब्धियों की प्राप्ति तो विपश्यना साधन से सम्भव
है परन्तु माना मन सध तो गया परन्तु निर्मल
नहीं बना तो भौतिकवादी जीवन में लोभ, लालच, ईर्ष्या, कलुषता, क्रोध और सबसे
ऊपर अपना कद बढ़ाने की होड़ जीवन का उत्थान नहीं बल्कि पतन ही करेगी।
विपश्यना के दुष्परिणामों से बचने के लिए ही बुद्ध भगवान विपश्यना
दीक्षा ऐसे ही सहजता से नहीं दे देते थे। साधक की पात्रता परखते थे पहले। अग्नि में
तपाकर जैसे कुन्दन तैयार होता है वैसे ही आत्म ज्ञान और मन को निर्मल बनाने के लिए
महीनों उसको तपाते थे तब जाकर उसको कहीं दीक्षा देते थे।
अपनी अर्न्तआत्मा को सर्वप्रथम तैयार करिये साधना के लिए। दृढ़
निश्चयी बनिए कि साधना सफल होकर सिद्ध होगी ही होगी। मन से यह भ्रम पूरी तरह से निकाल
दीजिए कि शिक्षा अथवा प्रशिक्षण ग्रहण करने की तरह किसी तथाकथित स्कूल, आश्रम, गुरू, ज्ञानी-ध्यानी अथवा
सिद्ध संत-पुरूष आदि के पास जाना आवश्यक है और उनके बिना साधना सम्भव नहीं है। ऐसी
भावना बलवती करिए कि स्वयं में आप सक्षम हैं, योग्य है और पूर्ण
हैं। साधना के लिए इसलिए किसी के भी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है आपको। अगर आपको
निःस्वार्थ भाव से इस क्षेत्र में सिद्धहस्त मार्गदर्शन देने वाला कोई मिल जाए तो इसको
अपना परम सौभाग्य समझें और उसकी देख-रेख में अपने आपको समर्पित कर दें। अपना ध्यान
नासाग्र पर केन्द्रित करें। सांस की गति को देखें - श्वास आता है और श्वास जाता है।
इस आने-जाने को देखना है। इसके पीछे दिये मर्म को बिल्कुल भी नहीं समझना है। प्रारम्भिक
अवस्था में बस देखें - श्वास आया और बाहर निकला। नाक के दाएं छेद से आ रहा है अथवा
बाएं से। कुछ नहीं देखना, कुछ नही समझना। बस एक ही बात श्वास
शरीर में प्रविष्ट हुआ और शरीर से बाहर निकला। हल्के से आया या तेजी से आया। हल्के
से बाहर निकला अथवा तेजी से बाहर निकला इस पर भी कोई ध्यान नहीं देना। श्वास क्यों
आ रहा है और क्यों जा रहा है इन गूढ़ तथ्यों में बिल्कुल भी नहीं जाना है। श्वास आ रहा
है, तो आ रहा है। जा रहा है, तो बस जा रहा
है। इसको मात्र देखना है ध्यान से।
प्रारम्भिक अभ्यास में उठते-बैठते, सोते-जागते
किसी भी स्थिति में बस श्वास के आने और श्वास के जाने को नाक के छिद्रों में देखें।
सुलभ हो, समय हो अथवा मन हो तो किसी भी सुखद स्थिति में अपने
को स्थिर करके श्वास के आने और जाने को देखें। बस देखते रहें। करना कुछ नहीं है। बलात
अथवा अनिच्छा के चलते भी ध्यान नहीं लगाना है श्वास के आने और जाने पर। सब क्रिया सहज
भाव से सहजता से होनी हैं। कहीं कोई जोर-जबरदत्ती
नहीं करनी। धीरे-धीरे श्वास को आप देखने लगेंगे उसका मार्ग, उसका
गन्तव्य, और उसकी गति। श्वास केवल फेफड़ों तक जा रहा है। श्वास
केवल पेट तक जा रहा है अथवा श्वास नाभी अथवा उसके नीचे के अंगों तक जा रहा है। यह सब
देखने का अभ्यास सहजता से करें। श्वास अन्दर आ रहा है तो आपका पेट फूल रहा है। श्वास
बाहर जा रहा है तो आपका पेट पिचक रहा हैं। श्वास के पेट में भरने और खाली होने पर पेट
का ऊपर और नीचे होना देखना है अब आपको। अभ्यास और संयम की कमी से यह सम्भव न हो पा
रहा हो तो हल्के से पेट पर हाथ की हथेली रखकर पेट की ऊपर और नीचे होने की गति को देखें
और अनुभव करें कि यह एक लय में हो रही है अथवा
अनियमित। यह देखें कि धीरे-धीरे एक ऐसी अवस्था स्वतः आने लगेगी कि आपका मन श्वास के
साथ-साथ फूलते और पिचकते पेट पर केन्द्रित होने लगा है। उसमें एक लयबद्धता एक तारतम्य
बनने लगा है। श्वास के देखने को, श्वास की पेट के साथ फूलने और
पिचकने की क्रिया को अब उठते-बैठते कहीं भी, किसी भी अवस्था में
देखते रहें। कहीं कोई योग नहीं करना है। कहीं कोई हठ योग, कोई
ध्यान धारणा, समाधि, कोई त्राटक नहीं करना,
कोई प्राणायाम नहीं करना हैं, कहीं कोई मंत्र जप
नहीं करना है। कहीं कुछ इस भाव से नहीं करना है कि किसी स्वार्थ की पूर्तिवश कर रहे
हैं। बस सहज भाव से श्वास की गति और उसके मार्ग को देखना है और धीरे-धीरे अभ्यास करना
है कि उसका गन्तव्य क्या है? उसकी सच्चाई क्या है? विपश्यना का सार-सत बस इस एक बात में निहित है कि श्वास ही सत्य है। साधना
का अ, ब और स इस सत्य के सहारे ही मनःस्थिति को स्थिर करना है,
केन्द्रित करना है, एकाग्र करना है। हमारा समस्त
कार्य, हमारा समस्त उद्देश्य, हमारा समस्त
ध्यान सब बस इस एक सत्य श्वास के आने और जाने पर केन्द्रित हो जाना है।
जैसे-जैसे विपश्यना का अभ्यास बढ़ता जाएगा श्वास की गति,
पेट का क्रमश उसके साथ फूलना और पिचकना सब सहज रूप में स्वतः ही दिखने
लगेगा और मन के प्रत्येक भाव को हम ठीक-ठीक पढ़ने लगेंगे।
शारीरिक विकार कैसे ठीक करें-
विपश्यना का सतत् अभ्यास और शरीर के अन्दर- अन्दर स्वतः आ रहे
भावों का अवलोकन, बस इसमें ही क्रिया का सार-सत छिपा है। मन चंचल
है। इसमें अनगिनत भाव, विचार, कल्पनाएँ
निरन्तर आती हैं और जाती हैं। मन में माना कोई भाव आया तो उसको देखें, केवल देखें - विचार आया, भाव आया, ध्यान आया, याद आयी, शरीर के किसी
अंग में पीड़ा आई, क्रोध आया, शान्ति आई,
किसी भाग में शरीर के खुजली आई आदि जो कुछ भी स्वतः मन में आ रहा है
अथवा जा रहा है उसका अवलोकन मात्र करना है। आया और गया, बस। क्यों
आया, कैसे आया, क्यों गया, कैसे गया। मैं सोच रहा हूँ। मेरे मन
में विचार आएगा। मैं यह करुँगा। मैं कर रहा हूँ। मैं वह करूगाँ। इस मैं, मेरा, क्यों, कब, कैसे आदि किसी में भी उलझना नहीं है। इसको समझने का प्रयास भी नहीं करना है।
बस आया और गया। जैसे श्वास आई और गई। पेट फूला और पेट पिचका।
किसी विचार, इच्छा, संकल्प, भाव, अविभाव विशेष का अवलोकन
करते-करते माना आप को कहीं मच्छर ने काट लिया तो स्वाभाविक है सारा ध्यान उसकी जलन
पर चला जाएगा। और हाथ स्वतः ही उस स्थान को खुजलाने में चले जाएंगे, जहाँ मच्छर ने काटा है। यहाँ ये आपका अभ्यास शुरू होता है। स्थान को खुजलाना
नहीं है। अवलोकन करना है और सारा ध्यान बस इस एक बात में केन्द्रित करना है कि खुजली
हो रही है, खुजली हो रही है। क्यों हो रही है, कैसे हो रही है इस बात में बिल्कुल नहीं उलझना है। धीरे-धीरे खुजली का ध्यान
करें। अभ्यास करते-करते ऐसी एक अवस्था स्वतः ही आ जाएगी कि खुजली का बोध समाप्त होने
लगेगा।
सिर दर्द हो रहा है। पेट में दर्द हो रहा हैं। रक्त चाप असामान्य
हो रहा है आदि कोई भी व्याधि सता रही है तो उसको होने दें। विपश्यना साधना में बैठ
जाएं। श्वास-निश्वास से मन को साधें। श्वास को शरीर में भ्रमण करने दें। वहाँ तक जाने
दें जहाँ कष्ट हो रहा है। क्यों हो रहा। कितना हो रहा है। कैसे हो रहा है। कुछ मत सोचें।
बस श्वास को देखें कि श्वास के उस भाग तक पहुँच रहा है। अभ्यास करते-करते लगने लगेगा
कि वह व्याधि, वह रोग, वह पीड़ा धीरे-धीरे
समाप्त होने लगी है।
पढ़ने-समझने में सब बहुत ही सहज लगेगा। है भी। परन्तु हमारा मन
नहीं सधा है। हमारा मन सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है श्वास का आवन-जावन ही वस्तुतः
सत्य है। इसको देखना है। इसको समझना है। इसको अपनाना है जीवन में। समझने का सबसे सरल
उपाय है, कहीं किसी श्मशान, कब्रिस्तान
आदि में जाएं। निर्विकार भावना से शवों को देखें और देखते रहें। जीवन के सत्य का मर्म
यदि समझना है तो यहाँ से अच्छा कोई स्थान नहीं हो सकता। क्योंकि यही जीवन का अंत है और यहाँ से ही विपश्यना
साधना का श्री गणेश है।
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