#राहु
#केतु
गोपाल राजू की पुस्तक, 'अन्धविश्वास सत्य और तथ्य' का सार-संक्षेप
#केतु
गोपाल राजू की पुस्तक, 'अन्धविश्वास सत्य और तथ्य' का सार-संक्षेप
रूड़की - 247 667 (उत्तराखण्ड)
ज्योतिष साहित्य में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि सात ग्रहों का वर्णन विस्तार से मिलता
है। इनके अस्तित्व, अध्ययन और प्रभाव का सारे विश्व में चलन है।
सप्ताह के सात दिनों रवि, सोम, मंगल आदि
के नाम भी इन्हीं ग्रहों के अनुरूप रखे गए हैं । दो अन्य ग्रहों राहु और केतु को इन
पिण्डों से अलग श्रेणी में रखा गया । राहु और केतु द्वारा सूर्य अथवा चन्द्रमा को ग्रसने
और उस स्थिति से उत्पन्न ग्रहण के दुष्परिणामों को लेकर अनेक अन्धविश्वास प्रचलित हैं।
यहाँ तक कि इनको भूत-प्रेत आदि जैसे भय का पर्याय तक बना दिया गया है। यहाँ तक भय और
भ्रम बना दिया गया है कि इन सबसे अनर्थ होना
ही होना है।
राहु और केतु एक ही शरीर के दो भाग हैं। जब मोहिनी द्वारा समुद्र
मंथन से निकला हुआ अमृत-कलश देवताओं को अमरता प्राप्त करवाने के उद्देश्य से बाँटा
जा रहा था तब एक असुर भी धोखे से देवताओं के मध्य आ गया। फलस्वरूप उसे भी अमृत पीने
को मिल गया और वह अमर हो गया। देवताओं में वहाँ उपस्थित सूर्य और चन्द्र देव उस असुर
के छल को पहचान गए। उनके द्वारा उस छल को उजागर कर दिया गया। देवताओं को यह कैसे सहन
होता कि कोई असुर भी अमर हो जाए। तब ईश्वर द्वारा उसका गला काट दिया गया। परन्तु वह
तो अमृत पान कर चुका था, कैसे मर जाता। हुआ यह कि उस असुर के
शरीर के दोनों भाग जीवित रहे। सिर वाले भाग को राहु के नाम से और धड़ वाले भाग को केतु
के नाम से जाना जाने लगा। स्पष्ट है कि राहु-केतु सूर्य और चन्द्र से बुरी तरह से चिढ़
गए और प्रतिशोध स्वरूप आज तक उनके अस्तित्व को मिटाने हेतु उन्हें निरंतर ग्रसते चले
आ रहे हैं। यह स्थिति ही ग्रहण कहलाती है। सूर्य और चन्द्रमा को उन असुरों से छुड़ाने
के लिए अन्धविश्वास स्वरूप दान, पूजा -पाठ, जप-तप आदि का चलन आज भी व्यापक रूप से देखा जा सकता है।
राहु और केतु तथा ग्रहण जैसी बातों का तथाकथित पौराणिक विवरण
केवल अन्धविश्वास अधिक है। सूर्य ग्रहण अथवा चन्द्र ग्रहण वास्तव में कैसे होता है
यह छोटी कक्षाओं में ही पढ़ा दिया जाता है। ग्रहण उस स्थिति में होते हैं जब गोचर में
सूर्य और चन्द्र इन छायाग्रह बिन्दुओं के समीप पहुँच जाते हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर
दूँ कि राहु-केतु कोई पिण्ड नहीं है यह ऐसे बिन्दु हैं जो सूर्य और चन्द्रमा के परिपथ
वाले क्षेत्र एक दूसरे को काटते हैं। सूर्य और चन्द्र के निश्चित परिपथ में घूमने वाले
कटान बिन्दुओं को ही राहु-केतु कहते हैं। यह
कोई सिर कटे राक्षस अथवा यक्षादि नहीं हैं जिनसे भय, भ्रम और
अन्धविश्वास पैदा किया जाए ।
ग्रहण काल में होने वाले वातावरण के प्रभाव को प्रायः सभी लोगों
ने अनुभव किया होगा। ग्रहण से पूर्व पशु-पक्षियों को इनका पूर्वानुमान हो जाता है।
सदा उद्दण्डता और चहचहाने वाले बन्दर चिल्लाना
और चहचहाना जैसे भूल जाते हैं । पक्षी सहमे से पेड़ों में छुप कर बैठ जाते हैं। शहद
की मक्खियों के व्यवहार में आश्चर्यजनक रूप से परिर्वतन आ जाता है। सूर्य अथवा चन्द्रमा
का प्रकाश पूर्ण अथवा आंशिक रूप से कम होने के कारण सारा वातावरण प्रदूषित हो जाता
है । इसलिए ग्रहणकाल में खाने-पीने की वस्तुओं को खुला नहीं छोड़ते । ग्रहणकाल में ना
ही खाने की सलाह दी जाती है।
यदि कोई स्त्री गर्भावस्था में होती है तो उसे ग्रहणकाल में घर
के बाहर तक नहीं निकलने दिया जाता । गाँवों में तो आज भी ऐसी स्त्री के पेट में गेरू का लेप लगा दिया
जाता है। यहाँ तक मान्यता है कि इस काल में स्त्री जो भी क्रिया-कलाप करती है,
उसकी सन्तान पर कोई न कोई दुष्परिणाम उसका अवश्य ही परिलक्षित होता है,
ऐसी बातों के अनेकों उदाहरण आज प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं । आज भी घर
की पुरानी महिलाएं ग्रहणकाल में गर्भवती स्त्री को चाकू, कैंची,
सिलाई आदि का कार्य नहीं करने देतीं। उनका मानना है कि यदि कोई गर्भिणी
यह कार्य करती है तो उसकी सन्तान में दोष होने की सम्भावना बढ़ जाती है। यह बात आकड़ों
से सिद्ध भी की जा चुकी है कि ऐसे प्रभाव वाले बच्चे मन और शरीर से किसी रूप ये विकृत
हुए हैं।
ग्रहण के दुष्परिणाम सामने आते हैं, इसको
पूर्णतया अन्धविश्वास नहीं कहा जा सकता कुछ ना कुछ विलक्षणता इस तथ्य के पिदे है अवश्य।
परन्तु उसका यह अर्थ नहीं कि राहु और केतु को अभिशाप मानकर मन में डर या अन्धविश्वास
को जन्म दिया जाए और उससे निरीह लोगों का धन आदि से शोषण किया जाए ।
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