हृदय में बसाकर देखें प्रणव ॐ


मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक)

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मंत्र, यंत्र और तंत्र एक ही शक्ति के तीन रुप हैं। इनमें से मंत्र का संसार सबसे प्राचीनतम, विचित्र और प्रभावशाली है। सृष्टि से पहले जब कुछ भी नहीं था तब वहॉ एक ध्वनि मात्र ही सब जगह व्याप्त थी। वह ध्वनि, प्रतिध्वनि, नाद, निनाद आदि एक शब्द था, एक स्वर था। वह शब्द एक स्वर-लय पर आधारित था। वह ध्वनि अथवा नाद आदि और कुछ नहीं वस्तुतः ओउम् था। ओउम् में कुल तीन अक्षर हैं - अ, उ और म। आकार से विराट अग्नि, विष्णु आदि से अर्थ लिया जाता है। 

 
उकार से हिरण्य गर्भ, शंकर, तेजस आदि का अभिप्राय है। मकार ईश्वर की प्राप्ति , प्रकृति आदि का बोध करवाता है। शास्त्रों के अनुसार इसका स्थूल अर्थ इस प्रकार से समझा जा सकता है - अ से सृष्टि की उत्पत्ति, उ से स्थिति और म से प्रलय का अर्थ ध्वनित होता है। स्वभाविक दृष्टिकोण से देखें तो अ उच्चारण करने से मॅुह खुल जाता है। उ से वह और भी अधिक विस्तार ले लेता है और म से वह स्वतः बंद हो जाता है। ऐसी ध्वनि और ऐसी मुद्रा अन्य सैकड़ों शब्दों से भी ध्वनित होती है। फिर ओउम् में ही ऐसी क्या विशेषता है? यह प्रश्न अनेक जिज्ञासु मन में उत्पन्न हो सकता है। सटीक उत्तर के लिए इस शब्द की होने वाली ध्वनि, नाद, निनाद आदि में जाना पड़ेगा। क्योंकि इस प्रश्न का सार-सत शब्द के अर्थ, उसकी तदनुसार चर्चा और तर्क-कुतर्क में नहीें वरन उसकी ध्वनि और नाद में निहित है।
     समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतीक चिन्ह ॐ अपने में अदभुत है। असंख्य आकाश गंगाओं का विस्तार ब्रह्माण्ड में ॐ की तरह ही फैला हुआ है। ब्रह्म के शास्त्रोक्त अर्थ, विस्तार अथवा फैलाव की तरह ही ॐ का विस्तार भी अनन्तानन्त है। इसी लिए ॐ समस्त मंत्रों का सार कहा गया है। बौद्धिक अध्ययनों में ॐ के अनन्त अर्थ बताए हैं इसीलिए इसको अन्य शब्दों से अलग अनादि, अनंत तथा निर्वाण अवस्था का प्रतीक कहा गया है।
अनाहत नाद का प्रतीक ॐ
वैज्ञानिक दृष्टिकोंण से देखें तो कोई भी ध्वनि जब की जाती है तो वह किसी पदार्थ के परस्पर टकराने से होती है, मानव प्रयासों से उत्पन्न की जाती है आदि। दूसरे ध्वनि हुई और   नियमानुसार कुछ समय में स्वतः समाप्त हो गयी अथवा कहें कि ब्रह्माड में व्याप्त हो गयी। परन्तु   ॐ समस्त शब्दों में से अलग अकेला एक ऐसा है जिसका कि प्रारम्भ तो है लेकिन अन्त नहीें  है। यह ध्वनि की नहीं जाती स्वयं में व्याप्त है।
     जितने भी शब्द, अक्षर, स्वर, व्यंजन, ध्वनि आदि हैं वह अनाहत नहीं हैं। मात्र ॐ ही उन सब में अकेला ऐसा है जिसकी ध्वनि अनाहत है। अनाहत का अर्थ है स्वयं से स्वयं उत्पन्न, अन्य ध्वनियों की तरह न की जाने वाली अर्थात् एक ऐसा नाद जो ब्रह्माड में भॅवरे की गुंजन की तरह सर्वदा और सदा से व्याप्त है। इस गुह्य तथा दिव्य सार-सत को केवल योग साधना, ध्यान,  मनन आदि द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।
विभिन्न वांग्मय में ॐ
  योग दर्शन के अनुसार ॐ का सतत् चिन्तन-मनन और जप साधन ही जीवन का मूल उददेश्य और सार है।
  अमृतनादोपनिषद् ने प्राणायाम की विधि सहित स्वच्छ एवं दोष रहित भूभाग में पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन आदि में उत्तराभिमुख होकर बैठने और एकाक्षर ब्रह्मरुप तेजोमय शब्द प्रणव का चिन्तन करने पर बल दिया है। सांस खीचकर कुंभन करके ॐ को अन्तःमन में धारण करना और वाह्य कुंभन से धीरे-धीरे सांस छोड़ने से ताल वृक्ष के फलने-फूलने की तरह कुछ समय में ही शरीर को भी लाभ पहॅुचने लगता है।
  मुण्डोपनिषद् में बताया गया है कि परमेश्वर का ॐ के उच्चारण द्वारा ही ध्यान करना चाहिए। यहॉ तप और तन्यमयता को प्रणव साधना की सफलता के लिए परम आवश्यक माना गया है।
  गोपद ब्राह्मण के अनुसार साधक उस ओंकार का एक हजार बार जप करे। उसका मॅुह पूरब दिशा की ओर हो। साधना काल में वह मौन रहे। कुशा का आसन हो तथा तीन रात्रियों का उपवास करे। इस तरह ध्यान-साधन से इष्ट कार्य में सिद्धि मिलने लगती है।
  गीता में प्रणव साधना के साथ-साथ इन्द्रियों के संयम पर विशेष बल दिया गया है। गीता में लिखा है, सब इन्द्रिय रुपी द्वारों का संचय कर और मन का हृदय में निरोध कर मस्तक में प्राण ले जाकर समाधि योग में स्थिर होने वाला इस एकाक्षर ब्रह्म ॐ का जप और मेरा स्मरण करता हुआ जो कोई देह छोड़ता है उसे परमगति की प्राप्ति होती है।
  अमृतनादोपनिषद् में विशेष नियमों के पालन का भी आग्रह किया गया है। योगी के लिए भय, आलस्य, अधिक निद्रा, अधिक भोजन, अधिक जागरण, निराहार रहना अथवा और क्रोध करना निशेष माना गया है। इस प्रकार नित्य नियम पालन करके जो व्यक्ति ॐ का मनन-गुनन करता है, शीघ्र ही वह देवों के सानिध्य में पहॅुच कर जीवन मुक्त अवस्था को पा लेता है।
  हिन्दू नियम पुस्तिका में स्पष्ट लिखा है कि जो व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप ॐ के पास रहते हैं, वह नदी के पास लगे वृक्षों की तरह कभी भी नहीं मुर्झाते।
  आधुनिक युग में खगोल शास्त्र के मूर्धन्य विद्धानों और प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, जिनमें आइन्सटीन भी एक हैं, सिद्ध किया है कि हमारे अंतरिक्ष में पृथ्वी मण्डल, सौर मण्डल आदि तथा अनेकानेक आकाशगंगाएं अनवरत ब्रह्माड के चक्कर लगा रही हैं। सभी आकाशीय पिण्ड हजारों मील प्रति सैकिण्ड की गति से अनन्त की तरफ अथक दौड़ लगा रहे हैं। इस प्रक्रिया में एक ध्वनि, प्रतिध्वनि, कंपन, नाद, गुंजन आदि निरन्तर हो रहा है। इस गुप्तादिगुप्त ध्वनि-शब्द को हमारे ऋषि-मुनियों ने अपनी योग-साधना और प्रज्ञा-दृष्टि से सदियों पहले आभास करके तथ्य प्रकट कर दिया था। उस ब्रह्मनाद अर्थात् ॐ को आज स्वीकारा जा रहा है कि यह ध्वनि-नाद प्रकृतिक ऊर्जा के रुप में ब्रह्माड में फैला हुआ है और इसका निरन्तर विस्तार हो रहा है।
 वैकल्पिक चिकित्सा को प्रोत्साहन देने वाले वैज्ञानिक अब स्वीकारने लगे हैं कि यदि ॐ का  उच्चारण एक लयबद्धता में अनुनाद रुप से किया जाता है तो चमत्कारी रुप से रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और तनाव भरे जीवन में संत्रास से मुक्ति के साथ-साथ साधक को एक अनोखी आत्म संन्तुष्टि का अनुभव होता है। 
ॐ के कुछ सरल एवं अनुभूत उपाय  
  प्रातःकाल में नित्य कमरें से निवृत्त होकर अपने सामने एक थाली रखें और उसमें सुन्दरता से गुलाब पुष्प की पंखुड़ियों से ॐ की आकृति बनाएं। प्रणव ॐ को साक्षात परब्रह्म की साक्षात मूर्ति मानते हुए धूप, दीप, नैवेद्य आदि से देव का सत्कार करें। एक निश्चित ताल और लय से ओंकार का जप करें। नाभी से लेकर अनादि चक्र तक ओंकार की प्रतिध्वनि को खूब ध्यान लगाकर सुनें और उसमें ही रमण करने का यत्न करें। जब मनोवृत्तियॉ वाह्य घटकों से सिमिट कर ओंकार में सिमटने लगे तब समझिए आपका उपाय साकार होने लगा है। नित्य इस प्रकार से ओंकार साधना किया करें। दीपक से जब भी आरती उतारें तो उसको ॐ की ही आकृति में घुमाएं। धीरे-धीरे आपके प्रज्ञा ज्ञान का विकास होने लगेगा। जो लोग भविष्यफल, कर्मकाण्ड अथवा अन्य गुह्य विद्या सम्बन्धी कार्य से जुड़े हुए हैं और मात्र यही उनकी जीविका का आधार है, उनके लिए तो यह उपाय रामबाण सिद्ध होगा।
  इंदौर के एक गृहस्थ संत का प्रसंग कहीं किसी अति प्राचीन ग्रंथ में मैंने देखा था। हृदय को छूने वाला उनका उपक्रम पाठकों के लाभार्थ यहॉ लिख रहा हॅू, आप सब भी लाभ उठाएं।
उनको गाने का बहुत शौक था। उठते-बैठते, सोते-जागते वह सदा प्रणव ॐ का जप   करते  रहते थे। अपने मधुर कंठ से उन्होंने ॐ को एक सुन्दर सी ताल और लय में लयबद्ध कर लिया था :
                       
                       
                       
भज  मना                   

  एक बोल में इस प्रकार स्थाई और अंतरे में वह कुल 26 बार ओंकार की आवृत्ति करते थे। इस धुन में वह इतना रम जाते कि स्वयं, ओंकार नाद और परब्रह्म सब एक होकर अन्ततः वह समाधी लीन हो जाते थे। लोग जिज्ञासावश जब उनसे पूछते थे कि आपके जीवन में ओंकार साधना का कोई चमत्कार-वमत्कार भी कभी हुआ है? तो वह सहजता से कह देते थे, चमत्कार-वमत्कार तो भइया कुछ नहीं होता और न ही किसी स्वार्थ तथा अपेक्षा से मैं यह ब्रह्मगीत गुनगुनाता हॅू। हॉ, यह अवश्य हुआ है कि जीवन में मुझे कभी अशान्ति और किसी भौतिक वस्तु का कभी भी अभाव नहीं रहा है। जब भी कभी जीवन में कोई अतिआवश्यक आवश्यकता आ भी पड़ी तो वह समय पर प्रभु ने स्वयं ही पूरी कर दी।
  इस उपाय में किसी आडम्बर, पंचोपचार, षोडोषपचार आदि पूजा-पाठ, जात-पात, आयु, लिंगादि का कोई भी बंधन नहीं है। बस मन को केन्द्रित करके ऐसे शून्य की अवस्था में पहॅुचाना है जहॉ सूर्य की आभा वाला दिव्य प्रकाश व्याप्त है और उस ब्रह्म पिण्ड में मानो आप पूरी तरह से समा गए हैं। वहॉ न तो कोई विचार हैं, न कोई भाव हैं, न ही कोई अविभाव है, बस एक निस्तब्धता और नीरवता मात्र वहॉ व्याप्त है। अब श्वास को खूब अच्छी तरह से शरीर में भरकर एक लय में बहुत ही धीर-धीर छोड़ते हुए राम का उच्चारण करें। उसकी ध्वनि नाद-अनुनाद सहित मूलाधार से ब्रह्माड तक गूंजती रहे इस प्रकार से राम के रा को खीचना है। रा के आ को ओ में गुंजन करें और इसको भी एक ही श्वास की लयबद्धता से जोड़ते हुए श्वास के अन्त में म का उच्चारण करें। रा . . . . ओ . . . . .म। इस गुप्तादिगुप्त गुह्य तथ्य में रकार-मकार भी है और प्रणव ॐ भी। यह अभ्यास कठिन अवश्य है पर उठते-बैठते किसी भी अवस्था में जब इसका सतत प्रयास करेंगे तो यह अन्तर्मन में समा जाएगा। अभ्यास को सरल बनाने के लिए एक सांस के ही इस क्रम में शब्दों की चोट नाभी के नीचे स्थित तांदेन बिन्दु पर करें।  तांदेन, जापानी योग में नाभी के लगभग 4 अंगुल नीचे एक ऊर्जा केन्द्र है। इसको शब्दों की चोट से यदि चैतन्य कर लिया जाए तो ध्यान-योग की अवस्था में और भी जल्दी पहॅुचा जा सकता है। जो जिज्ञासु साधक इस तथ्य की गहराई में जाना चाहते है, वह मेरा लेख ‘‘कैसे करें मंत्र की सिद्धि’’ भी पढ़ सकते हैं।
इस अवस्था में आने पर अनुभव करें कि आपका स्थूल शरीर तो अब रहा ही नहीं, केवल एक आत्मा है और वह अग्नि तत्व के रुप में परिवर्तित होकर एक ही ब्रह्म पिण्ड बन गयी है। उसमें भंवरे की गुंजन की तरह रा. . .  उ. . .  म. . . का नाद हो रहा है। इसमें आगे अभ्यास करते-करते जाएंगे तो शंख, घंटे-घड़ियाल आदि का कर्णप्रिय मधुर नाद सुनाई देने लगेगा। इस सुखद मनोहारी अवस्था को आपने यदि पा लिया फिर जीवन में क्या शेष बचेगा? उस दिव्य प्रकाश और ब्रह्मनाद भरे ब्रह्माड में जीवन का कोई भी ऐश्वर्य, भोग-विलास तो ध्यान में ही नहीं आएगा।
ॐ के उच्चारण से लाभ
  शरीर की ऊर्जा संतुलित होती है।
  चित्त को असीम दिव्य शांति मिलती है।
  रोग, शोक, व्याधियॉ तो कोसों दूर भाग जाती हैं। मानसिक तनाव, संत्रास, अवसाद आदि जैसे मनःस्थिति से पनपने वाले विकार तो तत्काल दूर होने लगते हैं।
  ॐ के सतत उच्चारण अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास होने लगता है और व्यक्ति ब्रह्मसत्ता में रमण करने लगता है।
एक बार हृदय में बसाकर तो देखें प्रणव ॐ को ।




मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक)







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